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जैन संघ का स्वरूप • 139
विनय
श्रमणी कभी भी व्यर्थ या भ्रामक भाषण नहीं कर सकती थी। असत्य भाषण, परनिन्दा, भर्त्सना, गृहस्थों की भाषा में वार्तालाप, भोजन के विषय में संवाद तथा देश के विषय में गपशप करना राजा के विषय में चर्चा करना उसके लिए निषिद्ध था। झगड़ा होने पर आचार्य या प्रवर्तिनी ही उसे शान्त करती थी। 278 श्रमणी को क्षमादान का अधिकार प्राप्त नहीं था । 279 इसके अतिरिक्त श्रमणी को स्नान करने, अंग प्रक्षालन करने, सुगन्धित द्रव्यों का उपभोग करने तथा अलंकार धारण करने का निषेध था । 280
दूसरों के बच्चों को गुदगुदाने या स्नान में अधिक समय लगाने पर उन्हें संघ से निष्कासित किया जा सकता था । 281 श्रमणी को समाज के अवांछनीय व्यक्तियों के संपर्क से बचने के लिए हमेशा सावधान रहना पड़ता था । श्रमणी को रागमण्डल का अध्ययन, विभिन्न मुद्राओं का ज्ञान तथा भिक्षुओं के साथ क्रीड़ा निषिद्ध थी । यहां तक की रात्रि में शयन करते समय, दो युवा श्रमणियों के बीच एक वृद्धा श्रमणी को सोना होता था। ताकि श्रमणियां समलैंगिकता से बची रहें | 282
प्ररोगावस्था में भी माता-बहन या पुत्री के आलिंगन कर लेने पर श्रमणी को प्रायश्चित करना पड़ता था । 283 पुरुष का आकस्मिक स्पर्शमात्र हो जाने पर उसे दण्ड भोगना पड़ता था । 284 उन्माद की अवस्था में श्रमणी को जल विहीन कुएं या एकांत कक्ष में बांध कर रखा जाता था । 285 यौनाकर्षित श्रमणी को मानव के दूषित अंग दिखाकर उसकी चिकित्सा की जाती थी। 286
श्रमण तथा श्रमणी के पारस्परिक सम्बन्ध
संघ के नियमानुसार यदि नगर में एक प्रवेश द्वार हो तो उसमें से एक श्रमण तथा एक श्रमणी एक साथ प्रवेश नहीं कर सकते थे। यदि प्राकृति उत्सर्ग के स्थानों पर वह एक-दूसरे को नग्न देख लेते तो उन्हें कठिन दण्ड दिये जाते थे। यदि वह एक दूसरे का अभिवादन करते तो इसे उच्च दण्डनीय अपराध समझा जाता था । 287
यदि वह परस्पर व्यक्तिगत मन्तव्य से मुलाकात करते या अभिज्ञता प्रकट करते या अभिवादन करते तो यह उच्च दण्डनीय अपराध समझा जाता था । 288 यदि यह बात नगर में फैल जाये तो श्रमणी को 'छेद' अर्थात् संघ से निलम्बन नामक दण्ड मिलता था | 289
इसका प्रमुख कारण संघ की नैतिक मूल्यों की प्रतिष्ठा के प्रति असीम सजगता थी। लोक गर्दा तथा लोकनिन्दा का भय संघ को निरन्तर बना रहता था। एकान्त स्थान पर श्रमण अथवा श्रमणी का आगे पीछे पाया जाना संघ द्वारा