________________
जैन संघ का स्वरूप • 137
कि साध्वी स्त्री एकान्त में रहकर साधना नहीं कर सकती। जैनों के जिस सम्प्रदाय ने मात्र जिनकल्प के आचार को ही साध्वाचार माना और स्थविरकल्प के गच्छावास तथा सचेल आचार को नहीं माना, उसके लिए एक ही मार्ग रह गया था कि वे स्त्रियों के मौन का भी निषेध करें। यही कारण है कि ईसा की प्रथम शताब्दी के बाद से दिगम्बर ग्रन्थों में स्त्रियों के मोक्ष का भी निषेध किया गया है तथा प्राचीन ग्रन्थों की व्याख्याओं में प्रस्तुत निषेध को मूल में से खोजने का असफल प्रयत्न किया गया है।264
भिक्षुणी को निग्गंथी, साहुणी अथवा अज्ज कह कर पुकारा जाता था। भिक्षुणी संघ की अध्यक्षा 'प्रवर्तिनी' कहलाती थी।265 आचार्य भिक्षुणी संघ की देखभाल किया करते थे। भिक्षु अथवा श्रमण की तुलना में भिक्षुणी या श्रमणी की स्थिति हीन समझी जाती थी। यहां तक कि तीन साल की पर्याय वाला श्रमण तीस साल के पर्याय वाली श्रमणी का गुरु बन सकता था तथा पांच साल के पर्याय वाला श्रमण साठ साल के पर्याय वाली श्रमणी का उपाध्याय।266 आचार्य, उपाध्याय और गणी श्रमणी संघ के रक्षक थे। इसके अतिरिक्त गणवच्छेदिनी, अभिसंगा, थेरी, भिक्षुणा तथा क्षुल्लिका आदि श्रमणी संघ की अन्य पदाधिकारिणी थीं।
संघ का अनुशासन
श्रमणी की संघ में प्रव्रज्या आचार्य तथा श्रमणी पर निर्भर थी। कोई भी श्रमण व्यक्तिगत मन्तव्य से श्रमणी को प्रवृज्या नहीं दे सकता था।267 किसी भी स्थिति में श्रमणी बिना शास्ता के नहीं रह सकती। यदि वह भ्रमण पर हो और शास्ता का देहान्त हो जाये उस स्थिति में शास्ता के बाद का वरिष्ठतम व्यक्ति इस पद पर नियुक्त कर दिया जाता था अथवा वह श्रमणी समूह किसी विशाल समूह में विलीन हो जाता था। यदि वह कुछ काल शास्ता के बिना रहती तो उन्हें 'छेद' नामक दण्ड जिसमें उनकी वरिष्ठता को कम कर दिया जाता अथवा 'परिहार' नामक एकान्तिक उपवास का दण्ड मिलता था।268
श्रमणी से अकलुषित जीवन और संयम की अपेक्षा की जाती थी। उपाध्याय के समान पद पर पहुंचने के लिए स्त्री को तीस वर्ष तक संघ में रहना अनिवार्य था। इसी प्रकार आचार्योपाध्याय के समकक्ष बनने के लिए साठ वर्ष का संघ जीवन अनिवार्य था।269
भ्रमण
भ्रमण के विषय में केवल कुछ नियम श्रमण की अपेक्षा श्रमणी के लिए भिन्न थे कि