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जैन संघ का स्वरूप • 135
में आठ माह तक एक स्थान से दूसरे स्थान तक विहार करते रहते थे। इस विहार का उद्देश्य था आत्मानुशासन ताकि किसी विशिष्ट स्थान अथवा परिवार से साधु को राग उत्पन्न न हो जाये। इसके अतिरिक्त जैन मनीषियों का यह भी विश्वास था कि सुखशीलता की स्थिति में वासना उभरती है। ग्रामानुग्राम विहार से गमनयोग सहज ही सध जाता है। ग्रामानुग्राम विहार करने वाला परिचय के बन्धन से भी सहज ही मुक्ति पा लेता है। 252 गमनागमन के समय जीव हिंसा का पूर्ण निरास होना आवश्यक था। 253
बृहत्कल्पभाष्य के जनपद परीक्षा प्रकरण में कहा गया है कि जैन श्रमणों को नानादेश की भाषाओं में कुशल होना चाहिए जिससे वे देश देश के वासियों को उनकी भाषा में धर्मोपदेश दे सकें तथा उन्हें इस बात की भी जानकारी होना चाहिए कि किसी देश में किस प्रकार के धान्य आदि की उत्पत्ति होती है और कहां खनिज व्यापार से आजीविका चलती है। 254 जनपद विहार के समय श्रमण विद्वान आचार्यों पादमूल में बैठकर सूत्रों के अर्थ का भी निश्चय कर सकते थे। 255
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श्रमण अथवा श्रमणी यदि तीर्थाटन पद हों और उनका मार्ग सीमान्तों, दस्युओं, म्लेच्छों, अनार्यो 256 तथा अर्धसभ्य व्यक्तियों, ऐसे व्यक्ति जो असमय जागते और भोजन करते हों के बीच से निकले तो उस दशा में यदि अन्य परिचित मार्ग जानते हों तो उससे जाये इससे नहीं। 257 क्योंकि ऐसे मार्ग पर श्रमण को अज्ञानीजन यह कह कर क्षुब्ध कर सकते हैं कि वह चोर है, गुप्तचर या अन्यग्राम का भेदिया है तथा उसके वस्त्र - पात्र, कम्बल, पादपोंछन आदि छीन झपट कर उसे उत्पीड़ित कर सकते हैं। अतः यदि विरुद्ध मार्ग हो तो साधु सावधानी पूर्वक जाये 1258
वैराज्य विरुद्ध राज्य प्रकरण
विरुद्ध राज्य में गमनागमन से जैन श्रमणों को दारुण कष्टों का सामना करना पड़ता था। यदि श्रमण के मार्ग में राजविहीन राज्य अथवा ऐसा राज्य जहां राजा अभिषिक्त न हुआ हो, एकाधिक राजा संघर्षरत हों, द्वैधशासन हो, अराजकता हो, निर्बलतन्त्र हो तो भिक्षु उस मार्ग से नहीं जाये अन्य परिचित मार्ग से जाये क्योंकि ऐसे राज्यों की अज्ञानी प्रजा साधु को धमका सकती है, पीट सकती है । 259 यदि मार्ग जलरुद्ध हो और उसे नाव से पार करने की आवश्यकता हो तो श्रमण ऐसी नाव में नहीं बैठे जो जलवेग से उठ गिर रही हो या मझधार में हो । यदि नाव किनारे से दूर हो या बड़ी किसी भी यात्रा के लिए उसमें नहीं बैठे | 260
यदि कभी नाव में बैठे यात्री नाविक से कहें कि अमुक साधु पात्र के समान निश्चेष्ट बैठा है जिससे नाव भारी हो गयी है अतः उसे हाथ पकड़कर फेंक दिया