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जैन संघ का स्वरूप • 133
मार्ग में जीवहिंसा का भय होने पर श्रमण वर्षावास का समय पांच से दस दिन तक बढ़ा भी सकते थे।238 सम्भवत: इसका कारण वर्षाकाल में मगध तथा उसके समीपवर्ती प्रदेशों का जलावरुद्ध हो जाना था। नदियों की बाढ़ से भूमि वीभत्स हो जाती थी। ब्राह्मण भिक्षुओं के लिए वर्षाकाल में चारिका स्थगित करने का प्रावधान था। महावीर तथा बुद्ध के समय साधनों के अभाव में यातायात निश्चय ही दुष्कर हो जाता होगा। बौद्ध विनय में उल्लेख है कि शाक्यपुत्रीय भिक्षुओं को देखकर लोग हैरान होते थे कि जब अन्य तीर्थिक एक जगह रहते हैं और चिड़ियाँ वृक्षों पर घोंसला लाकर रहती हैं, तब शाक्य पुत्रीय श्रमण हरे तृणों को रोंदते हुए विचरण करते हैं। यह देखकर तथागत ने अपने अनुयायियों के लिए भी वर्षाकाल का विधान किया।239
आचारांगसूत्र में श्रमण के लिए आदेश है कि उसे वर्षाकाल में अपने आवास का परिवर्तन नहीं करना चाहिए।240 जैकोबी बौधायन धर्मसूत्र241 से इस नियम की समानता पर्यवसित करते हुए कहते हैं कि बौद्ध तथा जैन दोनों ही मतों ने वर्षावास की संस्था ब्राह्मण संन्यासियों के अनुकरण तथा लोकमान्यता देखते हुए स्वीकार की थी।
श्रमण अथवा श्रमणी ग्राम अथवा हानि रहित स्थान पर जहां धार्मिक क्रियाओं व अध्ययन के लिए पर्याप्त स्थान हो, आवश्यक उपकरण सरलता से सुलभ हों तथा जहां श्रमण-ब्राह्मण अभ्यागत तथा याचक न हों. न ही जिनके आने की संभावना हो वर्षावास कर सकते थे।242
वर्षाकाल में श्रमण को ऐसे वनों से निकलना निषिद्ध था जिसे पार करने में पांच दिन अथवा अधिक समय लगने की संभावना हो। यदि श्रमण वर्षाकाल में ऐसे अपरिचित मार्गों से जायें तो जीवहिंसा की आशंका थी। अपरिचित मार्गों में जीवों, गेरुई लगे पौधों, बीजों, घास, जल या पंक स्थित जीवों को आघात पहुंच सकता था।243
जीव हिंसा से बचने के कारण ही गमनागमन वर्षभर रात्रि में निषिद्ध था।244
यदि वर्षाकाल के चातुर्मास व्यतीत हो गये हैं और शरदऋतु के पांच या दस दिन व्यतीत हो गये यदि मार्ग पर जीवजन्तु हों तथा बहुत से श्रमण और ब्राह्मण भ्रमण नहीं कर रहे हों तो जैन श्रमणों को भी भ्रमण नहीं करने का आदेश है।245
किन्तु यदि उसी समय मार्ग में कुछ ही जीव जन्तु हों तथा बहुत से श्रमण ब्राह्मण भ्रमण कर रहे हों तब जैन श्रमण भी सतर्कतापूर्वक ग्रामानुग्राम विहार कर सकते हैं। __ब्राह्मण, जैन तथा बौद्धसाक्ष्य तीनों ही इस परम्परा का समर्थन करते हैं कि वर्षाकाल साधुओं को एक ही स्थान पर व्यतीत करना चाहिए।246 किन्तु उल्लेखनीय है कि जैन तथा बौद्ध साधु वर्षाकाल में संघबद्ध होकर किसी उपाश्रय,