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136 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति जाये यह सुनकर साधु को चीवर ठीक से बांघ लेना चाहिए और नाव से स्वयं उतरने का आग्रह करना चाहिए। यदि फिर भी विद्वेषवश वह पानी में फेंक दिया जाये तो उसे बिना रोष किये जल को तैर कर पार करना चाहिए। यदि तैर कर पार करना सम्भव नहीं हो तो श्रमण उपधि को त्यागकर किनारे पर पहुंच कर गीला बैठ जाये। यदि जल को जांघ से पार किया जा सके तो करे और यदि जल के प्रवाह में बह जाये तो सल्लेखना करे।261 .
श्रमण को कभी भी मार्ग में आने वाली खाई, खन्दक, तलहटी, वृक्ष, जंगल, पर्वत, शिखर, स्तम्भ, पण्यगृह, गुहा, झरने, नदी आदि को इंगित नहीं करना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से त्रस स्थावर और वायुकाय जीव भयभीत हो जाते हैं तथा अन्यत्र शरण ले लेते हैं।262 __ श्रमण अथवा श्रमणी ग्रामानुग्राम भ्रमण करते समय गुरु के स्पर्श से बचें तथा मार्ग में मिलने वाले यात्रियों के वार्तालाप में सम्मिलित न हों। अनेक प्रकार के प्रश्नों तथा जिज्ञासाओं जैसे श्रमण कहां से आ रहे हैं, कहां जाएंगे, मार्ग में अमुक को देखा है क्या, अमुक ग्राम कितना बड़ा था आदि प्रश्नों के उपस्थित होने पर साधु मौन रहे अथवा जानते हुए भी अनभिज्ञता प्रकट करें।263 ___यद्यपि जैन संघ ने अपने श्रमणों के लिए पूर्वावधान के रूप में अपवाद मार्ग को सम्मत किया ताकि साधुओं के उत्पीड़न से संघशक्ति का ह्रास नहीं हो फिर भी संघ अपने अनुयायियों से यही अपेक्षा करता था कि वे उच्च नैतिकता के प्रतीक बने रहें। भय जैसी धारण उनकी मानसिकता का अंश न बन जाये अतएव जैन श्रमण तथा श्रमणी को यह भी आदेश दिया गया कि यदि उन्हें यह ज्ञात हो कि मार्ग में आने वाले जंगल में चोर अथवा डाकू उनकी सम्पत्ति की कामना कर सकते हैं तब इस भय से वह मार्ग न बदले तथा अपने अपकृत सामान को अपना जताते हुए चोर से वापिस नहीं मांगे। वह मौन रहे। हताहत होने या वस्त्रों के फाड़ दिये जाने पर भी वह न तो आवास के स्वामी से शिकायत करे, न इसकी ग्राम में चर्चा करें, न ही राजा के प्रसाद में अथवा गृहस्थ से इस विषय की चर्चा करें। श्रमण इस वृत्तांत पर न कहे, न विचारे और न ही चित्त को उद्विग्न होने दे। वह किसी भी प्रकार के व्यवधान से उपराम होते हुए तीर्थाटन या गमनागमन करे।
भिक्षुणी संघ अथवा श्रमणी संघ
जैन संघ में भिक्षु तथा भिक्षुणी दोनों के लिए स्थान है, किन्तु जिनकल्प में जो साधना का उत्कट मार्ग है उसमें भिक्षुणियों को स्थान नहीं दिया गया है। इसका यह कारण नहीं कि भिक्षुणी व्यक्तिगत रूप से उत्कट मार्ग का पालन करने में असमर्थ है अपितु सामाजिक परिस्थितियों से बाध्य होकर ही आचार्यों ने यह निर्णय किया