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140 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
दण्डनीय था। यह दण्ड जनप्रवाद या साक्ष्यों की मात्रा के अनुपात में दिया जाता था।290 श्रमण तथा श्रमणी का एक साथ एक स्थान पर आवास निषिद्ध था। एक श्रमणी श्रमण के साथ निर्जन स्थान पर न रुक सकती थी, न चल सकती थी और न ही अपनी कठिनाइयों के विषय में परिसम्वाद कर सकती थी।291 इसी प्रकार एक श्रमण श्रमणी के साथ न सो सकता था, न अध्ययन कर सकता था, न भोजन कर सकता था।292 मात्र धर्मचर्चा के लिए ही वह श्रमणी संघ में पूर्वानुमति से जा सकता था।293
श्रमण और श्रमणी को परस्पर प्रत्यक्षरूप से वार्ता करने का निषेध था। इसके लिए उन्हें गणी की आज्ञा प्राप्त करनी होती थी। एक पदाधिकारी की उपस्थिति में ही वह धार्मिक विषयों पर परिसंवाद कर सकते थे।
वर्षाकाल में श्रमण तथा श्रमणी एक साथ विहार नहीं कर सकते थे। किन्तु यदि स्थान जन सामान्य के लिए गोचर हो अथवा खुले द्वारों का हों, तभी वह वर्षा से बचने के लिए एक साथ खड़े हो सकते थे।294
दिगम्बर संघ का स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण
श्वेताम्बरों की स्त्री सम्बन्धी अवधारणा को तो दिगम्बरों ने मान्यता दी किन्तु उन्होंने कहा कि स्त्रियां श्रमणी बनने के उपरान्त भी निर्वाण की अधिकारिणी नहीं हो सकती जब तक कि उनका पुरुष के रूप में पुनर्जन्म नहीं हो।295 दिगम्बरों की मान्यता के अनुसार वैराग्य नग्नता के बिना असम्भव है। शारीरिक असमर्थताओं के कारण स्त्रियों के लिए नग्नता का निषेध था।296
इसके अतिरिक्त दिगम्बर स्त्रियों को धूर्त समझते थे।297 श्रमणियों को लेखन का अधिकार नहीं था। श्वेताम्बरों के समान ही दिगम्बरों ने भी कुछ निश्चित ग्रन्थों के अध्ययन पर भी प्रतिबन्ध लगा दिये थे। गणधरों, प्रत्येक बुद्धों, श्रुत केवलिन तथा अभिन्न दश पूर्वो के लिए निर्धारित पुस्तकों का अध्ययन केवल भिक्षु कर सकते थे।298 श्रमणियों को निर्दिष्ट करने के लिए भी वही श्रमण पात्र समझे जाते थे जो परमनैतिक तथा शास्त्रों के पारगामी थे।299 श्रमणियों से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह श्रमण अथवा अध्यापक के समक्ष भूमि पर घुटने टेक कर बैठे। 300 नमस्कार भी वह पांच, छ: या सात हाथ की दूरी से करे।
प्रायश्चित
स्थानांगसूत्र तथा भगवतीसूत्र के अनुसार श्रमण प्राय: दर्प 'दप्प' असावधानी अणायोग, लापरवाही, प्रमाद अथवा शारीरिक वेदना के कारण संकटकाल में