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(5) संहृत
(6) दायक
(7) उन्मिश्रित
(8) अपकृत
(9) लिप्त
(10) खरदित
परिभोगैषणा
परिभोगैषणा के चार दोष हैं
(1) संयोजन
(2) अपरमाण
जैन संघ का स्वरूप • 131
भोजन सचित्त द्रव्य से ढका हो ।
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- यदि दाता एक पात्र में से भोजन देने के लिए निकाले और दूसरे में रखे।
- यदि देने वाले की अवस्था या व्यवसाय निषिद्ध भिक्षा के अन्तर्गत हो ।
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- यदि शुद्ध व अशुद्ध भोजन को दाता मिश्रित कर दे।
- यदि साझे भण्डार में से दूसरे की इच्छा के विपरीत पहला व्यक्ति भिक्षु को भोजन दे।
- यदि घी या दूध दही से सनी कड़छी या हाथ से भिक्षा दी जाये। 228
- यदि भिक्षा देते समय वह दूध फैला दे ।
(3) इंगाल (4) अकारण
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यादि भिक्षु भोजन के अच्छे-अच्छे भाग एक जगह एकत्र कर ले।
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- यदि वह बताई गई मात्रा से अधिक भोजन स्वीकार कर ले।
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• यदि अच्छी भिक्षा के लिए वह दाता की प्रशंसा करे । यदि वह शास्त्रों द्वारा बताये गये अवसरों के अतिरिक्त अवसर पर इच्छित भोजन खाये।
ब्रह्मचारी के लिए आचारांग में निर्बल भोजन का आदेश है। शक्तियुक्त भोजन करने से शरीर शक्तिशाली होता है । सशक्त शरीर में मोह को प्रबल होने का अवसर मिलता है। शक्तिहीन भोजन करने से शक्ति घट जाती है। निर्बल शरीर में मोह भी निर्बल हो जाता है। इसलिए वासना को शान्त करने का पहला उपाय निर्बल आहार बताया गया है। अति आहार करने वाले को वासना अधिक सताती है। कम खाना वासना को शान्त करता है। 229
वासना शमन के लिए एक उपवास से लेकर दीर्घकालीन तप अथवा आहार का जीवन पर्यन्त परित्याग भी विहित है। 230 इसके अतिरिक्त जैन भिक्षु को भोजन बनाते समय चक्की चलाने, पीसने, कूटने, आग दहकाने, पानी को खींचने या बुहारने में मदद नहीं करनी चाहिए। यह आधा कर्म दोष कहलाता है। इस आचार