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आगमकालीन धार्मिक एवं दार्शनिक विचार • 75
होता है। प्रत्येक पदार्थ स्थिर एवं स्वभावरूप कूटस्थनित्य है अर्थात् सभी पदार्थ एकान्तनित्य हैं।215 सृष्टि ईश्वर की रचना नहीं अपितु जड़ और चेतन तत्व से बनी
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यद्यपि सांख्यवादी छह तत्वों आत्मा और पांच द्रव्य की सत्ता में विश्वास रखते हैं तथापि वह पांच भूतिकों से भिन्न नहीं हैं क्योंकि सांख्यमत आत्मा को निष्क्रिय मानकर पंचमहाभूतों को उत्पन्न करने वाली प्रकृति को ही सब कार्यों का कर्ता मानता है। सत्य, रजस और तमस यह तीन गुण संसार के मल कारण हैं।217 इन तीनों गुणों की साम्यावस्था ही प्रकृति है और यह तीनों प्रकृति के गुण हैं। यह प्रकृति ही समस्त कार्यों का सम्पादन करती है। यद्यपि पुरुष या जीव नामक चेतन पदार्थ भी है तथापि पुरुष आकाशवत् व्यापक होने के कारण क्रियारहित है। वह प्रकृति द्वारा किये हुए कर्मों का फल भोगता है और बुद्धि द्वारा ग्रहण किये हुए पदार्थों को प्रकाशित करता है। यह बुद्धि भी प्रकृति से भिन्न नहीं है किन्तु उसी का कार्य है अतएव त्रिगुणात्मिका है। बुद्धि भी तीन सूत्रों से बंटी रस्सी के समान सत्व, रजस और तमस इन तीन गुणों से बनी हुई है। इन तीन गुणों का सदा उपचय और अपचय होता रहता है। इसलिए यह तीनों गुण कभी स्थिर नहीं रहते। जब सत्व गुण की वृद्धि होती है तो मनुष्य शुभ कार्य करता है। रजोगुण की वृद्धि होती है तो पाप पुण्य मिश्रित कार्य करता है। पृथ्वी आदि पांच महाभूत इन तीनों गुणों द्वारा ही उत्पन्न हैं। अत: प्रकृति ही इन सबकी अधिष्ठात्री है। प्रकृति त्रिगुणात्मिका होती है, उससे बुद्धि महत् तत्व, महत्व से अहंकार, अहंकार से पांच तन्मात्र, सूक्ष्मभूत तथा तन्मात्रों से पांच महाभूत, पांच ज्ञानेन्द्री, पांच कर्मेन्द्री और मन उत्पन्न होता है। यों कुल चौबीस पदार्थ ही समस्त विश्व के परिचालक हैं। पच्चीसवां पुरुष भी एक तत्व है, पर वह भोग तथा बुद्धि से ग्रहीत पदार्थ को प्रकाशित करने के सिवाय कुछ नहीं करता। __ ऐसी स्थिति में सांख्यमतानुसार प्रकृति ही समस्त कार्य करती है। पुण्य पाप आदि सभी क्रियाएं प्रकृति ही करती है। इसलिए शास्त्रकार कहते हैं-से किण किणा वेमाणे, हयं धायमाणे–णत्थित्य दोसौ। आशय यह है कि सांख्य दर्शन के मतानुसार भारी से भारी पाप करने पर भी पुरुष को उसका दोष नहीं लगता, वह तो निर्मल ही बना रहता है। पंचेन्द्रिय जीवों के घात का पाप पुरुष को नहीं लगता क्योंकि आत्मा निष्क्रिय है और सब कार्य प्रकृति ही करती है।
जैन विचारक इस मत की आलोचना करते हुए कहते हैं कि यह मत नि:सार और युक्तिहीन है।218 सांख्यवादी पुरुष को अचेतन तथा नित्य कहते हैं, भला अचेतन और नित्य प्रकृति विश्व को कैसे उत्पन्न और संचालित कर सकती है? क्योंकि वह ज्ञानरहित एवं जड़ है। सांख्य का आत्मा तो बेचारा पाप-पुण्य कुछ नहीं करता फिर उसे सुख-दुःख क्यों भोगने पड़ते हैं। जब वह निष्क्रिय है तो