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जैन संघ का स्वरूप • 109
(1) आचार्योपाध्याय गण में आज्ञा या धारणा का सम्यक् प्रयोग न कर सकें अर्थात् संघ का मनोबल तथा आवश्यक कर्तव्यों के प्रति अनुशासन बना कर न रख सकें।
(2) आचार्योपाध्याय गण में कृतिकर्म वन्दन और विनय का सम्यक् प्रयोग न कर सकें अर्थात् गण के सदस्यों को नियन्त्रित न कर सकें।
(3) जिन श्रुत पर्यायों को धारण करते हैं, समय-समय पर उनकी गण को सम्यक् वाचना न दें।
(4) आचार्योपाध्याय अपने गण की या दूसरे के गण की निर्ग्रन्थी में बर्हिलेश्य आसक्त हो जाएं।
(5) आचार्योपाध्याय के मित्र या स्वजन गण से अपक्रमित (निर्गत) हो जाएं, उन्हें पुनः गण में सम्मिलित करने तथा सहयोग करने के लिए वह गण से अपक्रमण कर सकते हैं।
प्रवर्तक या प्रवर्तिन
आचार्य और उपाध्याय के अतिरिक्त श्रमण संघ की व्यवस्था और दायित्व की दृष्टि से प्रवर्तक का स्थान था। संघ की प्रत्येक गतिविधि एवं स्थिति का ध्यान रखना, श्रमणों को उनकी रुचि और क्षमता के अनुसार साधना क्षेत्र में प्रवृत्त करना, प्रोत्साहित करना, प्रवर्तक का प्रधान दायित्व था । "
किसी कारणवश यदि साधक अति उत्साह या भावुकतावश किसी कार्य में वैयावृत हो जाता किन्तु धैर्य, शारीरिक शक्ति तथा परिस्थिति की अनुकूलता के अभाव में यदि वह आगे नहीं बढ़ पाता तो प्रवर्तक उसका पथ प्रवर्तित करता था। 7
प्रवर्तक की योग्यता का वर्णन करते हुए आचार्य ने लिखा है कि तप, नियम, विनय आदि गुणों के निधान श्रमणों को यथायोग्य ज्ञान, दर्शन और चरित्र की साधना में नियोजित करने वाले कुशल श्रमण प्रवर्तक पद को समलंकृत कर सकते हैं 108
स्थविर
स्थानांगसूत्र में तीन प्रकार के स्थविरों का उल्लेख है
(1) वय : स्थविर
(2) पर्याय स्थविर, तथा (3) श्रुत स्थविर 169