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जैन संघ का स्वरूप. 117
(3) परिधना: दरिद्रता से ली जाने वाली। (4) स्वप्ना: स्वप्न के निमित्त से ली जाने वाली। (5) प्रतिश्रुता: पहले की हुई प्रतिज्ञा के कारण ली जाने वाली। (6) स्मरणिका: जन्म जन्मान्तरों की स्मृति होने पर ली जाने वाली। (7) रोगिणिका: रोग का निमित्त मिलने पर ली जाने वाली। (8) अनादृता: अनादर होने पर ली जाने वाली। (9) देवसंज्ञप्ति: देव के द्वारा प्रतिबद्ध होकर ली जाने वाली। (10) वत्सानुवन्धिका: दीक्षित होते हुए पुत्र के निमित्त से ली जाने वाली।
प्रवज्या अथवा संघ प्रदेश के लिए योग्यता
श्रमण उच्च नैतिकता तथा आत्म संयम के प्रतीक होते थे। इस प्रतिमान को अक्षुण्ण रखने के लिए संघ प्रवेश के पूर्व कुछ अर्हताओं का निर्धारण किया गया था। यद्यपि संघ जीवन जाति या प्रतिष्ठा की दृष्टि से सबके लिए मुक्त था।26 किन्तु कुछ अपवाद भी थे। संघ प्रवेश के नियमों का कालान्तर में विकास यह दर्शाता है कि कुछ निहित स्वार्थों का संघ प्रवेश हो चुका था जो जीवनयापन के लिए संघ में प्रविष्ट हो जाते थे ताकि अच्छा भोजन मिल सके, एकान्त जीवन से मुक्ति मिल सके अथवा ऋण से छुटकारा मिल सके।।27
स्थानांगसूत्र!28 के अनुसार नपुंसक, रोगी एवं कायर को संघ में प्रवेश नहीं देना चाहिए। इसके अतिरिक्त आठ वर्ष से कम आयु के बालक!29 वृद्ध एवं दुर्बल व्यक्ति, अपंग 30, मूढ़, डाकू, राजापराधी, उन्मत्त, अंधे, दास, धूर्त, मूर्ख, ऋणी, सेवक तथा अपहृत व्यक्ति, गर्भवती स्त्री तथा बालक का संघ प्रवेश निषिद्ध था।131 __ जाति किसी प्रकार की अपात्रता नहीं थी किन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि ब्राह्मणों का जातिवाद जैन धर्म में व्यावहारिक रूप में प्रविष्ट हो गया था।।32
धर्मसंग्रह!33 के अनुसार श्रमणतत्व स्वीकार करने के लिए आवश्यक था कि श्रमण
(1) आर्यक्षेत्र में जन्मा हो, (2) उच्चवर्ण या जाति का हो, (3) बड़े पापों से मुक्त हो, (4) पवित्र बुद्धि हो।
संघ प्रवेश की अर्हताओं में जिज्ञासु की शारीरिक समर्थता के साथ ही उसकी