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___ 116 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
गच्छनिर्पेक्ष आचार्य अपना उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं करते पर इससे संघ के अहित की सम्भावना रहती है। संघ में संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। यदि आचार्य को भावी नियुक्ति के लिए योग्य आचार्य न मिलें या उनका देहान्त अचानक हो जाये तो संघ को चाहिए कि वह अस्थायी आचार्य या उपाध्याय चुन ले और निर्वाचकगण यह घोषणा करें कि स्थायी नियुक्ति तक यह हमारे नेता हैं।19
आचार्य यदि जिनकल्प साधना स्वीकार करना चाहें या आमरण अनशन करना चाहे तो अस्थायी रूप से किसी आचार्य या उपाध्याय को कार्यभार अवश्य सौंप कर जाएं।120
इन उल्लेखों से यह प्रमाणित होता है कि श्रमणसंघ में आचार्य अथवा उपाध्याय के निर्वाचन के साथ अन्य अधिकारी वर्ग का निर्वाचन अनिवार्य नहीं था। आचार्य चाहते तो शेष सभी विभागों का कार्यभार स्वयं संभालते या कुछ पर अन्य समर्थ मुनियों की नियुक्ति करते थे।।21 ___ जैन श्रमण तथा श्रमणी को आदेश है कि किसी कार्यवश गृहस्थ के घर जाएं तो आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, स्थविर, गणी, गणधर, गणवच्छेदक जिनकी निश्रा में वह रह रहा है, उनसे बिना पूछे नहीं जाये।।22 ___ मुनि संघ जिसके नेतृत्व में विहार कर रहा हो उसके दिवंगत हो जाने पर संघ किसी उपसम्पदा योग्य श्रमण की निश्रा स्वीकार करे। यदि कोई योग्य न हो तो जो श्रुत और पर्याय की दृष्टि से ज्येष्ठ हो उसकी निश्रा स्वीकार करे।।23 यदि वह भी न हो तो जिधर अन्य साधर्मिक साधु हों उधर विहार करे।।24 किन्तु योग्य नेतृत्व के बिना नहीं रहे।
श्रमण संघ में सात पदों की व्यवस्था होते हुए भी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा से पदों और कार्यक्षेत्रों का संकोच और विस्तार होता रहा है पद संख्या की न्यूनाधिकता का एक कारण यह भी हो सकता है कि अनेक बार एक ही व्यक्ति अधिक पदों का दायित्व संभाल लेता था। जैन श्रमण संघ के विस्तार, स्थिरीकरण
और अभ्युदय की दृष्टि से यह पद व्यवस्था बहुत मूल्यवान सिद्ध हुई और वीर निर्वाण की एक सहस्राब्दि तक चलती रही।
प्रवज्या लेने या वैराग्य के कारण
स्थानांगसूत्र में प्रव्रज्या लेने के दस कारण बताये गये हैं।25
(1) छन्दा: अपनी या दूसरों की इच्छा से ली जाने वाली। (2) रोषा: क्रोध से ली जाने वाली।