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जैन संघ का स्वरूप. 115
सम्भोग
उत्तराध्ययन तथा स्थानांगसूत्र के टीकाकार सम्भोग की परिभाषा एकामण्डलिकाभोक्तृत्वा:10 से करते हैं जिसका अर्थ है श्रमणों का ऐसा समूह जो सामाचारी द्वारा बंधा हुआ है तथा जो भिक्षा एक साथ एकत्र होकर लेता है। जैकोबी के अनुसार यह श्रमणों का ऐसा समूह था जो एक ही जिले में भिक्षा मांगता था।
समवायांगसूत्र के अनुसार सम्भोग की संरचना से उसके सदस्यों को कुछ रियायतें मिल जाती थीं।12 उल्लेखनीय है कि आचार्य, उपाध्याय, थेर, कुलसंघ, ज्ञान, दर्शन और चारित्र इनमें से किसी से भी द्वेष करने पर श्रमण को सम्भोग से निष्कासित कर दिया जाता था।13
बौद्ध तथा जैन संघ की सक्रिय इकाइयों में वर्गीकरण का विभाग उनके प्रवर्तकों के आदर्शों तथा संघ प्रशासन से निष्पन्न है। बुद्ध शास्त्र की अपेक्षा धर्म के अमूर्त नेतृत्व को अधिक उचित मानते थे।।14अपने चहुं ओर फैले गणतन्त्रात्मक राज्यों की पद्धति के प्रशंसक होने के नाते उन्होंने अप ो मृत्यु के पश्चात् संघ द्वारा अपनाने के लिए प्रजातन्त्रात्मक पद्धति को पसन्द किया। इसके विपरीत महावीर ने उत्तराधिकारी चुनने की प्रतिष्ठित पद्धति को ही अनवरत रखा। 15 जैन संघ की चेष्टा व्यक्तिवाद की ओर अधिक थी।।16
पद निर्वाचन
जैन संघ में पदाधिकारियों की नियुक्ति के लिए कोई संघीय निर्वाचन प्रणाली नहीं थी। निर्वाचन का एकमात्र अधिकारी आचार्य ही था। आचार्य पदाधिकारियों का मनोनयन स्वयं करते थे। अपेक्षा होने पर संघ अथवा स्थविर मुनियों की सहमति ली जा सकती थी। आचार्य के लिए अपने उत्तराधिकारी आचार्य की नियुक्ति जितनी अनिवार्य समझी जाती थी उतनी शेष पदों की नहीं।
व्यवहारभाष्य में लिखा है कि आचार्य मोह चिकित्सा या रोगचिकित्सा के लिए किसी अन्य गण में जाये तो अस्थायी रूप से उत्तराधिकारी की नियुक्ति अवश्य करके जाये।17
व्यवहारभाष्य के चूर्णिकार ने लिखा है कि उत्तराधिकार की दृष्टि से आचार्य दो प्रकार के होते हैं-गच्छसापेक्ष और गच्छनिरपेक्ष। गच्छसापेक्ष आचार्य अपनी विद्यमानता में ही उत्तराधिकारी की नियुक्ति कर देते हैं, जिससे उनका देहान्त होने पर संघ को कठिनाई नहीं झेलनी पड़ती। आचार्य को चाहिए कि वह अपने जीवनकाल में ही संघ का भावी उपाध्याय या नेता नियुक्त कर दें।