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जैन संघ का स्वरूप • 119
आचार्य या उपाध्याय के समक्ष ली जाने लगी।
आचारांगसूत्र में महावीर के निष्क्रमण के प्रसंग में उल्लेख है कि उन्होंने अपने वस्त्राभूषणों का त्याग कर दिया तथा अपने केशों को पंचमुट्ठि लोय द्वारा निकाल दिया, सभी मुक्तात्माओं को नमस्कार किया तथा कोई पापपूर्ण कार्य न करने का प्रण करते हुए पवित्र आचरण को स्वीकार किया। 44 तत्कालीन समाज में श्रमणों को विशेष प्रतिष्ठा प्राप्त थी तथा प्रवजित श्रमण के आश्रितों की देखभाल राज्य द्वारा की जाती थी। __ ज्ञातृधर्म कथा'45 में मेघकुमार के निष्क्रमण संस्कार का विस्तार से वर्णन मिलता है जहां मेघकुमार ने गुणशील चैत्य में पहुंचकर अपने वस्त्र और आभूषण उतार डाले, पंचमुष्टि से अपने केशों का लोंच कर भगवान की प्रदक्षिणा की और हाथ जोड़कर पर्युपासना में लीन हो गये। महावीर ने मेघकुमार को शिष्यरूप में स्वीकार कर लिया। ___ यदि तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाये तो बौद्धसंघ में भी आरम्भ में स्वयं बुद्ध ने ही प्रव्रज्या दी थी। तथागत की शरण लेने से ही प्रव्रज्या सम्पन्न हो जाती थी जैसा कि पंचवर्गीय भिक्ष आदि के उदाहरण से स्पष्ट है। पंचवर्गीय भिक्षओं ने संघ में प्रवेश यह कह कर मांगा था कि 'हम लोग भगवान के निकट प्रव्रज्या पायें, उपसम्पदा पायें' और शास्ता ने यह कह कर उनको दीक्षित किया कि 'आओ धर्म स्वाख्यात है, अच्छी तरह दुख के नाश के लिए ब्रह्मचर्य का पालन करो।'146 ___ बुद्ध ने जब से भिक्षुओं को धर्म प्रचार के लिए नाना दिशाओं में भेजा उन्हें प्रव्रज्या एवं उपसम्पदा देने की अनुमति दी। कपिलवस्त में इसी प्रकार राहलकमार की प्रव्रज्या शारीपुत्र द्वारा संभव हुई। प्रव्रज्या के प्रार्थी को सिर और दाढ़ी मुंडवा कर, काषाय वस्त्र पहन कर, उत्तरासंघ से एक कन्धा ढक कर, बैठकर और हाथ जोड़कर तीन बार यह कहना पड़ता था कि वह बुद्ध की शरण जाता है, धर्म की शरण जाता है, संघ की शरण जाता है।147 कालान्तर में तथागत के किसी योग्य शिष्य को अपना आचार्य या उपाध्याय बनाकर उसके निकट त्रिशरणगमन के द्वारा संन्यास दीक्षा दी जाने लगी।।48
पालि विनय से बौद्ध संघ में प्रवेश के नियमों का विकास ज्ञात होता है। 49 बुद्ध का संघ प्रवेश का सूत्र बड़ा सरल था। वह प्रथमावस्था में भिक्षु को सर्वदुःखों से मुक्ति तथा धर्म अंगीकार करने के लिए आह्वान करते थे। दूसरी अवस्था में प्रवेशार्थी मुण्डित शिर, गेरुए वस्त्र में संघ के समक्ष त्रिशरण की प्राप्ति घुटनों के बल बैठ कर करता था। तीसरी अवस्था में उसे आचार्य या उपाध्याय द्वारा भिक्षु परिषद के समक्ष उपस्थित किया जाता था। यदि किसी को आपत्ति नहीं होती तो वह प्रवजित मान लिया जाता था।।50
जैन तथा बौद्ध दोनों ही संघों में भिक्षु की अवस्था प्राप्त करने से पूर्व