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जैन संघ का स्वरूप • 127
साधु के उपकरण
निर्ग्रन्थ श्रमण दो प्रकार के बताये गये हैं—(1) जिनकल्पी और 2 स्थविर कल्पी। जिनकल्प श्रमणों को संघ के नियमों से ऊपर माना जाता था। यह नग्न रहते थे
और पाणि-पात्रभोजी होते थे।199 बृहत्कल्पभाष्य के अनुसार जिनकल्प साधु भोजन प्राप्त कर के एक प्रहर में ही उसे खा लेता है।200 तथा प्रमुख उद्यान से आगे भिक्षा के लिए नहीं जाता।201 स्थविरकल्पी साधु संघ में रहते थे तथा नियमों से चलते थे। वह वस्त्र पहनते थे तथा अपने साथ कई वस्तुएं भी रखते थे।
जिनकल्पी श्रमणों के दो अन्य प्रकार थे-(1) पाणिपात्र भोजी तथा (2) प्रतिग्रहधारी। पाणिपात्रभोजी रजोहरण और मुखवस्त्र के साथ एक, दो अथवा तीन वस्त्र कल्प धारण करते हैं। प्रतिग्रहधारी वस्त्र धारण नहीं करते लेकिन बारह उपकरण रखते हैं। यह हैं पात्र, पात्रबन्ध, पात्रस्थापनन, पात्र केसरिका (पात्रमुखवस्त्रिका) पटल (ऊनीवस्त्र) स्जस्त्राण, 2-गोच्छक, दो प्रच्छादक वस्त्र, रजोहरण और मुखवस्त्रिका उसमें मात्रक और चोलपट्ट मिला देने से स्थविर कल्पियों202 के चौदह उपकरण हो जाते हैं।203 इसके अतिरिक्त वह एक डण्डा भी रखते थे।204
अन्यपात्रों में नन्दीभाजन, पतद्गृह, विपद्गृह, कमढ़क विमात्रक और श्रमणभाजक के नाम उल्लेखनीय हैं।205 वर्षाऋतु के योग्य उपकरणों में डगल, क्षार, कुटमूलर, घड़े जैसा पात्र, तीन प्रकार के मात्रक, लेप, पादलेखनिका, संस्तारक, पीठ और फलक के नाम उल्लेखनीय हैं।206
वस्त्रैषणा
श्रमण अथवा श्रमणी को यदि वस्त्र की आवश्यकता हो तो वह ऊनी, रेशमी, सन, खजूर की पत्तियों, कपास अथवा अर्कतूल या इसी प्रकार के वस्त्रों की याचना करे। यदि वह यौवन से पूर्ण स्वस्थ्य भिक्षु है तो वह एक वस्त्र धारण कर सकता है, दो नहीं। यदि वह भिक्षुणी श्रमणी है तो उसे चार ऐसे वस्त्र रखने की अनुज्ञा है जिसमें एक दो हाथ चौड़ा, दो तीन हाथ चौड़े तथा एक चार हाथ चौड़ा हो।207 यदि उसे ऐसा वस्त्र न मिले तो वह एक से दूसरे को जोड़ कर सीले। श्रमण अथवा श्रमणी वस्त्रैषणा के लिए आधे योजन से दूर जाने का निश्चय नहीं करे। वह ऐसे वस्त्र स्वीकार न करे जिन्हें कि गृहस्थ श्रावक श्रमण के लिए लाया हो, वस्त्र धुला हुआ हो, रंगा गया हो, झड़ा हुआ हो, स्वच्छ हो, सुगन्धित हो तथा दाता ने स्वयं उसे श्रमण के योग्य बनाया हो।208 अलंकृत व मूल्यवान वस्त्र स्वीकार नहीं करे। वस्त्रैषणा के चार नियम हैं