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जैन संघ का स्वरूप • 121
(स) तीसरी भूमिका शरीर त्याग की है। जब वह आत्महित के साथ-साथ संघ हित कर चुकता है, तब शिष्य समाधिकरण के लिए शरीर त्याग की तैयारी में लग जाता है। इस समय उसे दीर्घकालीन ध्यान और तप की साधना करनी होती है।
बौद्ध संघ में भी प्रव्रजित भिक्षु जिसकी उपसम्पदा ° नहीं हुई है श्रमणेर कहलाता था। उसे एक उपाध्याय और एक आचार्य चुनकर उनके निश्रय में रहना पड़ता था। पहले प्रव्रज्या और उपसम्पदा साथ साथ हो जाती थी, किन्तु कालान्तर में कुछ अन्तराल आवश्यक हो गया। सम्भवत: इसका कारण ऐसे भिक्षुओं की संख्या थी जो बुद्ध के व्यक्तिगत जानकारी क्षेत्र के नहीं होते थे तथा तथागत के अतिरिक्त अन्य व्यक्तियों द्वारा भी दीक्षित होते थे। 161
आचार्योपाध्याय तथा सेह का सम्बन्ध लगभग वैसा ही होता था जैसा कि वैदिक परम्परा में गुरु शिष्य का तथा बौद्ध परम्परा में उपाध्याय और श्रमर का।॰2 यह सम्बन्ध भावात्मक रूप में पिता-पुत्र सम्बन्धों के तुल्य थे। वैदिक परम्परा के समान । जैन चिन्तन में भी विद्या को मुक्तिकारक माना गया है। उत्तराध्ययन में अध्ययन के दो कारण बताये गये हैं 163–
(1) स्व की मुक्ति के लिए, तथा (2) पर की मुक्ति के लिए।
अध्ययन के चार अभिप्रेरक बताये गये हैं 164_
(1) श्रुत की प्राप्ति,
(2) चित्त की एकाग्रता,
(3) आत्मा को धर्म में स्थापित करना, तथा
(4) धर्म में स्थित द्वारा अन्य को धर्म में स्थापित करना ।
आठ लक्षणयुक्त व्यक्ति को शिक्षा प्राप्त होती है 165_
(1) जो हास्य नहीं करता,
( 2 ) जो इन्द्रिय और मन का दमन करता है, (3) जो मर्म प्रकाशित नहीं करता, (4) जो चरित्रवान होता है,
(5) जो रसों में अतिगृद्ध नहीं होता,