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जैन संघ का स्वरूप • 123
से अपेक्षा की जाती थी कि वह आचार्य के समक्ष सदा प्रशान्त रहे, वाचाल न हो। उनके पास अर्थयुक्त पदों को सीखे और निरर्थक कथाओं का वर्जन करे। गुरु द्वारा अनुशासित किये जाने पर क्रोध न करे, अपराध की क्षमायाचना करे। क्षुद्र व्यक्ति के साथ संसर्ग, हास्य और क्रीड़ा न करे। चाण्डालोचित कर्म क्रूर व्यवहार न करे। उचित काल में स्वाध्याय और ध्यान करे।
गुरु की प्रसन्नता शिष्य के लिए अर्थकारी थी।।74 तत्ववित आचार्य अध्यापन से पूर्व ही शिष्य के विनय से परिचित हो जाने के कारण प्रसन्न होने पर ही उसे मोक्ष के हेतुभूत श्रुतज्ञान का लाभ करवाते थे।।75 अपेक्षित था कि शिष्य एकान्त में अथवा अन्य के समक्ष वचन अथवा कर्म से कभी भी आचार्य के प्रतिकूल व्यवहार न करे। बुलाये जाने पर किसी भी अवस्था में मौन न रहे तथा सदा उनके समीप बना रहे।176 __शिष्य गुरु या आचार्य के बराबर न बैठे, आसन या बिछौने पर बैठ कर न तो गुरु से आदेश ग्रहण करे न प्रश्न पूछे। गुरु से नीचे, अकम्पमान और स्थिर आसन पर बैठे। प्रयोजन होने पर भी बार-बार न उठे। स्थिर और शान्त करबद्ध होकर बैठे तथा हाथ-पैर से चपलता न करे।77
समयं पर भिक्षा के लिए निकले, समय पर लौट आये। आचार्य को कुपित न करे, स्वयं कुपित न हो। आचार्य का उद्घात करने वाला नहीं हो, छिद्रान्वेषी न हो।।78 जो शान्त हुए विवाद को फिर न उभाड़े, कुतर्क से प्रज्ञाहनन नहीं करे, कदाग्रह और कलह में रत न हो।।79 जो आचार्य को छोड़ कर दूसरे धर्मसम्प्रदायों में चला जाये, छ: माह की अवधि में एक गण से दूसरे में चला जाये वह शिष्य निन्दा पाता था।।80 दुःशील, गुरु के प्रतिकूल वर्तन करने वाला शिष्य-गण से निकाल दिया जाता था।।81 |
स्वाध्याय
श्रमण तथा श्रमणी के स्वाध्याय के लिए चार काल निर्धारित थे।82
(1) पूर्वार्द्ध में : दिन के प्रथम प्रहर में, (2) अपराह्न में : दिन के अन्तिम प्रहर में, (3) प्रदोष में : रात्रि के प्रथम प्रहर में, (4) प्रत्यूष में : रात्रि के अन्तिम प्रहर में।
इसी प्रकार चार संध्याओं में स्वाध्याय निषिद्ध था।83 :
- (1) सूर्योदय से पूर्व,