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जैन संघ का स्वरूप • 113
परिपूर्णता है, उनकी दृष्टि ही पूर्ण अहिंसा, पूर्णसत्य, पूर्ण अस्तेय, पूर्ण अपरिग्रह
और पूर्ण ब्रह्मचर्य की है। कायः, क्लेश, वैराग्य, नग्नता, आमरण अनशन जिस दृष्टि के उत्प्रेरक हों वहां भौतिक आवश्यकताओं की सम्पूर्ति का गौण विषय बन जाना न तो संघ की निपूर्णता का अभाव दर्शाता है न ही सामितीय आधार पर तुलनात्मक हीनता।
जिनका आदर्श नग्नता है, चीवरभाजक पद उनके लिए महत्वहीन है। जो पाणिपात्री हैं, पूर्ण अपरिग्रही हैं उनके लिए भाण्डागारिक पद स्वत: नगण्य है। आध्यात्मिक उत्कर्ष के सतत् साधक के लिए भौतिक व्यवस्थाओं के नियम और उनकी क्रियान्विति देखना सुपथ में गतिरोध और प्रमाद का कारण हो सकता है। यह जैन संघ की दूरदृष्टि और आचार्यों की सूझबूझ का ही परिणाम रहा कि श्रमणसंघ सहस्राब्दियों के बाद भी बौद्ध संघ की तुलना में शक्ति संपन्न बना रहा
और अनेकों अवरोधों के उपरान्त भी जैन धर्म की धारा अविच्छिन्न रूप से प्रवाहित होती रही तथा अपने तत्वदर्शन और चिन्तन से जनजीवन को अनुप्राणित करती रही।
यह सत्य है कि जैन संघाधिकारी सेह शिष्य, श्रमण (भिक्षु), आचार्य, उवाज्झाय (उपाध्याय), आयारोवाज्झयाय (आचार्योपाध्याय), पवति (प्रवर्तिन), गणि (गणाधिपति), गणहर (गणधर) तथा गणवच्छेइय (गणवच्छेदक) जैसे पदों की स्थिति स्पष्ट नहीं है।
किन्तु इस परिप्रेक्ष्य में ज्ञातव्य है कि श्रमणसंघ में नेतृत्व का विकास और पल्लवन एक ही साथ हो गया हो ऐसा नहीं था। इसका विकास क्रमिक हुआ तथा जैसे-जैसे संघ का विस्तार हुआ वैसे-वैसे सुगमता की दृष्टि से कार्य का विभाजन हुआ और नेतृत्व की दिशाएं विकसित हुईं। __ कालक्रम से श्रमण संघ में इन व्यवस्थाओं की जड़ें इतनी गहरी और दृढ़ हो गयीं कि उनको श्रमण आचार संहिता के तुल्य प्रतिष्ठा प्राप्त हो गयी। किन्हीं परम्पराओं में यह धारणा पुष्ट हो गयी कि यह पद व्यवस्था स्वयं महावीर द्वारा प्रतिपादित है तथा उनके समय से ही प्रचलित है। कहीं-कहीं ऐसा भी माना जाने लगा कि इन सात पदों की निश्रा के बिना साधु-साध्वियों को विहार करना भी नहीं कल्पता अर्थात् श्रमणसंघ में इन सातों पदों और पदाधिकारियों की नियुक्ति अनिवार्य है।
संघ की इकाइयां
जैनसंघ के पूर्ववर्णित सात पदाधिकारियों के अधीन भिक्षु कई समूहों में विविध इकाइयों में बंटे थे। यद्यपि इन इकाइयों के पारस्परिक सम्बन्धों के विषय में