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जैन संघ का स्वरूप • 111
प्रमुख शिष्यों के अर्थ में जो द्वादशांगी की रचना करते हैं और सामान्य आचार्य के अर्थ में” लेकिन आचार्य के अर्थ में वह उतना प्रचलित नहीं है। मूलतः गणधरों की परम्परा तीर्थंकरों की विद्यमानता में ही प्रचलित होती है। तीर्थंकरों के निर्वाण के पश्चात् गणधर फिर गणधर नहीं कहलाते । 78
लेकिन पद व्यवस्था के क्रम में प्रयुक्त गणधर शब्द का अर्थ बिलकुल बदल जाता है। वहां गणधर का अर्थ है श्रमणों की दिनचर्या का ध्यान रखने वाला श्रमण जिसे ‘संग्रहोपग्रहकुशलः' कहा गया है।"
स्वयं भगवान महावीर के नौ गण तथा ग्यारह गणधर थे जिनका प्रमुख कार्य भगवान के उपदेशों को स्मरण रख तत्काल अंगों में निबद्ध करना था। बौद्ध संघ में ऐसे गणधर नहीं थे।
भगवान बुद्ध समय समय पर उपदेश देते थे किन्तु उनके उपदेश को तत्काल गुम्फित करने का दायित्व किसी का नहीं था। उनके निरन्तर साथ रहने वाले शिष्य उपदेशों का श्रवण करते और स्मरण करने का प्रयत्न करते थे। यही कालान्तर में विनयधर कहलाने लगे | 80
वैदिक वाङ्मय के लिए गणधर शब्द अचीन्हा और अनजाना रहा । यद्यपि गणपति शब्द बहुलता से मिलता है।
स्थानांगवृत्ति में गणधर का अर्थ किया गया है 'आर्याप्रतिजागरुकः "" अर्थात् साध्वियों को प्रतिबोध देने वाले। इससे प्रतीत होता है कि श्रमणी समूह की देखरेख, अध्ययन और मार्गदर्शन के लिए किसी विशिष्ट श्रमण की नियुक्ति होती थी जिसे 'गणधर' कहा जाता था।
गणवच्छेदक
गणवच्छेदक गण के एक विभाग का अध्यक्ष होता था । 2 गणवच्छेदक के लिए गच्छवच्छ शब्द अनेक बार प्रयुक्त हुआ है जो इंगित करता है कि गणवच्छेदक संघ के प्रति विशेष वत्सल भाव रखते थे । आठ वर्ष का संघ पर्याय तथा स्थानांग एवं समवायांग का पूर्ण ज्ञान इस पद की अर्हता थी । 84 बहुश्रुत आदि गुणों से युक्त, श्रुति संहनन संपन्न, संघ हितैषी और महान सेवा भावी मुनि इस पद पर नियुक्त किये जाते थे | SS संघ की आन्तरिक व्यवस्थाओं का दायित्व मुख्यत: इन्हीं पर था। संघ के किसी सेवा कार्य के लिए वे आचार्योपाध्याय के निर्देश की प्रतीक्षा नहीं करते थे। या तो वह स्वयं संघीय अपेक्षाओं को देखकर उसमें प्रवृत्त हो जाते या आचार्य से स्वयं अनुरोध करते थे कि यदि उनकी अनुज्ञा प्राप्त हो तो वे अमुक कार्य करें 186
कल्पसूत्रवृत्ति में लिखा है कि गणवच्छेदक साधुओं को लेकर बर्हि विहार