________________
112 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
करते हैं। वस्तुत: गण की व्यवस्था समबन्धी चिन्ता करना इनका कार्य था। यदि इस पद पर नियुक्त व्यक्ति ब्रह्मचर्य भंग करे अथवा संघ त्याग करे तो उसे जीवन पर्यन्त इस पद के लिए अयोग्य कर दिया जाता था। यदि पदमुक्त होने पर वही अपराध कर बैठे तो उसे तीन वर्ष के लिए निलम्बित कर दिया जाता था।89
उक्त सात पदों की व्यवस्था जैन श्रमणसंघ की अपनी मौलिक उपलब्धि थी। संघ के विकास और विस्तार की दृष्टि से यह बहुत ही उपयोगी सिद्ध हुई। यह आश्चर्य का विषय है कि महावीर युगीन कोई भी धर्मसंघ जैन संघ के समान सुव्यवस्थित और सुसंगठित नहीं बन पाया। इन सात पदों जैसी व्यवस्था का संकेत तो वैदिक, बौद्ध आदि किसी भी संघ व्यवस्था में नहीं मिलती। गणवच्छेदक, प्रवर्तिन, गणि, गणधर जैसे पदों का संस्तरण जैनसंघ में अनूठा था।
किन्तु इस प्रसंग में जी०एस०पी० मिश्री' का मत उल्लेखनीय है क्योंकि उनके अनुसार जैन संघ की तुलना में बौद्ध संघ अधिक सुसंगठित था तथा सामुदायिक विचारों पर आधारित था। संघ के अन्तर्गत कुशल प्रशासन के लिए बौद्ध संघ की संहिता में अनेक पदाधिकारियों की नियुक्ति के नियम थे जैसे संघभट्ट, भोजन वितरण की व्यवस्था करने वाला पदाधिकारी भाण्डागरिक, भण्डार देखने वाला चीवर भाजक, वस्त्र वितरक शाटिक गाहपक, वस्त्र स्वीकार करने वाला, समणेरपेसक, श्रमणों का निर्देशक आदि आदि तथा इनके निर्वाचन, अधिकार और कर्तव्यों के विषय में स्पष्ट नियम बने हुए थे।92
इसी प्रकार गणपूरक गण का कार्यवाहक आयुक्त, शलाकागाहपक मत एकत्र करने वाला आयुक्त, आसनापक आसन वितरक आदि संघ के ऐसे पदाधिकारी थे जो उसके सम्यक् संचालन के लिए उत्तरदायी थे। जैन संघ में इस प्रकार का सुसंग त सामुदायिक जीवन दृष्टिगोचर नहीं होता। संघ में प्रशासनिक निपूर्णता का परिचय देने हेतु जैन संघ अपने सदस्यों की भौतिक आवश्यकताओं की सम्पूर्ति से अपनी कोई सम्बद्धता नहीं दर्शाता।
डा० मिश्र अपने मत के समर्थन में एस०बी० देव के इस कथन को भी उद्धृत करते हैं कि जैन संघ श्रमणों के नैतिक पक्ष को देखते हुए संघ पदाधिकारियों का संस्तरण मात्र करके सन्तुष्ट था।4
विज्ञजनों की समालोचनात्मक गहन दृष्टि के उपरान्त भी विवेचन की दृष्टि से यह मत पूर्ण प्रतीत नहीं होता क्योंकि जीवन मूल्य ही किसी भी व्यक्ति अथवा संस्था के निर्माता नियन्ता होते हैं और उसके क्रियान्वयन के परिचायक भी। बौद्ध संघ आरम्भ से ही मध्यमा प्रतिपदा की दृष्टि लेकर चला तो उसने अपने संघ के संविधान और उसके क्रियान्वयन में भी आदर्श और व्यवहार अथवा आध्यात्मिक और भौतिक के मध्य सन्तुलन रखा।
जैन संघ का आधार ही प्रासुक भिक्षुओं की आध्यात्मिक और नैतिक