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96 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
एनसाक्लोपीडिया आफ रिलीजन एण्ड ईथिक्स, जि. 1 : हिस्ट्री एण्ड डाक्ट्रिन आफ आजीवकज, पृ. 101-1031
195. द्र. स्टडीज इन दी भगवतीसूत्र, पृ. 435: जैनसूत्रज, भाग 2, परिचयात्मक ।
196. बाराबरा पर्वतीय गुहालेख नं0 38, 39, 40: द्र. इण्डियन एन्टीक्वेरी जि . 20, पृ. 168 तथा आगे ।
197. बृहद्जातक तथा लघुजातक, 20 तथा 9-11।
198. सूत्रकृतांग 2, अ. 6 गाथा 14 का अवतरणः शीलांकवृत्ति, पृ. 3931
199. होर्नले, एन्साइक्लोपीडिया आफ रिलीजन एण्ड ईथिक्स, जि. 1, पृ. 265 1 200. उवासगदसाओ, पृ. 2651
201. सूत्रकृतांग 1, 3/3/121
202. जैनसूत्रज, भाग 2, पृ. 267, 4411
203. द्र हिस्ट्री एण्ड डाक्ट्रिन आफ आजीवकाज, पृ. 31
204. सूत्रकृतांग (एस.बी. ई. जि. 45 ) भाग. 1, 1 / 1 /7-8 पृ. 236 भूतवादियों को ही यहां नास्तिक या चार्वाक कहा गया है।
205.द्र. मूल्यमीमांसा, पृ. 101।
206. द्र. स्टडीज इन दी ओरिजिन्स आफ बुद्धिज्म, पृ. 3511
207. वही ।
208. सूत्रकृतांग-1, 1/1/7-8, मूल में इस वाद का कोई नाम नहीं बताया है। नियुक्तिकार भद्रबाहु ने इसे पंचमृतवाद कहा है किन्तु टीकाकार शीलांक ने इसे चार्वाक मत कहा है। दूसरे श्रुतस्कन्ध में इसी को पंचमहाभूतिकवाद कहा है।
209. वही, 1/101
210. मूलकार ने इस मत का कोई लाभ नहीं बताया है। निर्युक्तिकार तथा टीकाकार ने इस मत को तज्जीव तच्छरीरवादी कहा है। द्र. सूत्रकृतांग विजयमुनि शास्त्री, पृ. 251
211. जैकोबी के अनुसार टीकाकार का तात्पर्य सांख्य अथवा लोकायतिक मत से है। सांख्य के अनुसार जगत का विकास प्रकृति से हुआ है, आत्मा क्रियाहीन है। लोकायतिकों के अनुसार ही आत्मा नामक कोई पृथक सत्ता नहीं है । भूततत्व ही जब चैतन्य प्रकट करने लगते हैं तब आत्मा कहलाते हैं। द्र. जैनसूत्रज भाग-2, 7/201
212. विशेष विस्तार के लिए द्र. सूत्रकृतांग अ. - 1, (मुनि हेमचन्द्र जी), पृ. 44-501 213. प्रकृति के लिए यहां नियतिभाव आज्ञा पद प्रयुक्त हुआ है। जैकोबी के अनुसार यहां नियति का तात्पर्य नित्यभाव से ही है । द्र. सूत्रकृतांग (एस. बी. ई. जि. 45-भाग 1), 1/2/5-61
214. सूत्रकृतांग मुनि हेमचन्द्र जी जि. 2,5/21
215. वही, (एस. बी. ई. जि. 45, भाग 1 ), 2/3/6, पृ. 2441
216. वही, व्याख्या मुनि हेमचन्द्र जी, 1/10, पृ. 56-571
217. वही, व्याख्या भाग - 2, पृ. 56-571
18. वही, जि. 2, 6/50 पृ. 3831
219. आयारो-1, 3/41, पृ. 35-37 तथा 1/5/90-92 पृ. 15-16 तथा 29: तथा देखें जैन साहित्य का वृहत इतिहास - भाग 1, पृ. 91।
220. आचारांग द्वितीय अध्ययन, द्वितीय उद्देशक ।
221. जैन साहित्य का वृहत इतिहास, भाग-1, पृ. 931