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106 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
अपेक्षा अनुभूत हुई हो ऐसा प्रतीत नहीं होता। -
नेतृत्व का विस्तार
कालान्तर में जब श्रमणसंघ विस्तार पाने लगा तो धर्माचार्यों का झुकाव लोकसंग्रह की तरफ हुआ। उनका कार्यक्षेत्र और संघीय प्रवृत्तियां बढ़ने लगीं साथ ही दायित्व भी बढ़ा। श्रुत केन्द्रित दृष्टि विकेन्द्रित हुई और अन्यान्य प्रवृत्तियों से संयुक्त हो गयी। श्रुत परम्परा के विच्छिन्न होने की आशंका ने अधिकारी वर्ग को सतर्क कर दिया। संघ की बहुमुखी प्रवृत्तियों और अपेक्षाओं की दृष्टि से दायित्व विभाजन किए गए किन्तु वह भी अपर्याप्त रहे। ___फलत:संघ की सुव्यवस्था के लिए नेतृत्व के क्षेत्र में परिवर्तन और परिवर्धन की अपेक्षा प्रतीत हुई। संघ की प्रवृत्तियों का वर्गीकरण हुआ। उनके सम्यक् संचालन के लिए विविध पदों और पदाधिकारियों का मनोनयन हुआ। आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तिन, स्थविर, गणि, गणधर और गणवच्छेदक इन सात पदों का निर्धारण हुआ तथा इनकी प्रतिष्ठा को संघ में वरीयता प्राप्त हुई।14
संघ के पदाधिकारियों का संस्तरण
आचार्य
व्यवहारभाष्य में उल्लेख है कि जैसे नृत्य के बिना नट नहीं होता, नायक के बिना स्त्री नहीं होती, धुरे बिन गाड़ी का पहिया नहीं चलता, वैसे ही आचार्य के बिना गण नहीं चलता।45 स्पष्ट है कि जैन परम्परा में आचार्य का स्थान सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना गया है। __पद व्यवस्था के क्रम में आचार्य की वरिष्ठता को अक्षुण्ण रखा गया है। उसकी योग्यता और दायित्व का परिचय देते हुए पूर्व मनीषियों ने लिखा है कि सूत्र और अर्थ का पारगामी व्यक्ति आचार्य पद पर समासीन हो सकता है। वह शिष्यों को अर्थ की वाचना देता है और गण की अन्यान्य चिन्ताओं से मुक्त करता है।46 आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा है कि आचार्य व्याख्याकार होता है।47 इस प्रकार आचार्य ज्ञान के स्रोत थे और सूत्र के अर्थ की वाचना देते थे।48 ___आगम साहित्य में संघ के महत्वपूर्ण पदों की सूची में आचार्य सर्वोपरि है। श्रुत परम्परा को अविच्छिन्न रखने के लिए उसकी उपस्थिति अनिवार्य थी। किन्तु आरम्भ में कार्यक्षेत्र अध्ययन अध्यापन तक ही था।
संघ विस्तार के साथ ही आचार्य का कार्य क्षेत्र विभक्त हुआ। स्थानांगसूत्र के