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98 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
252. सूत्रकृतांग, मुनि श्री हेमचन्द्र जी की व्याख्या-2, 1/11, पृ. 65-671 253. वही, 6/43-451 254. वही, 6/45-451 255. वही, पृ. 375-761 256. पाणिनी के काल में लोग देवी देवताओं की मूर्तियां बनाकर अपनी आजीविका चलाते थे।
द्र. गोपीनाथ, एलीमेन्टस आव हिन्दू इकोनोग्राफी, भूमिका। 257. ज्ञातृधर्म कथा, अ. 8, निशीथसूत्र 8/14 में इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, मुकुन्द, भूत, यक्ष, नाग,
स्तूप, चैत्य, वृक्ष, गिरि, द्रोण, तड़ाग, हृद, सागर और आकरभट्ट का उल्लेख किया है। 258. उत्तराध्ययन, 19/3: विशेष टिप्पण के लिए द्र. उत्तरज्झयणं सटिप्पण पृ. 143 टिप्पण
5, भगवतीसूत्र, 10/41 259. सूत्रकृतांग एस.बी.ई. 1/6/7 पृ. 2881 260. द्र. हापकिन्स, इपिक माइथोलॉजी, पृ. 135। तु. वृहत्कल्पभाष्य 1/1856-59। परम्परा के
अनुसार एक बार इन्द्र उण्डक ऋषि की रूपवती पत्नी को देखकर मोहित हो गया। ऋषि ने उसे शाप दिया जिससे वह महाबध्या का पातकी कहलाया। इन्द्र डरकर कुरुक्षेत्र चला गया। इन्द्र के अभाव में स्वर्ग रसशून्य हो गया। यह देखकर देवता इन्द्र को स्वर्ग में लाने के लिए कुरुक्षेत्र पहुंचे। देवों ने इन्द्र से स्वर्गलोक चलने की प्रार्थना की लेकिन इन्द्र ने कहा, ऐसा करने से उसे महाबध्या लग जायेगी। इस पर देवताओं ने महाबध्या को चार हिस्सों में बांट दिया स्त्रियों के ऋतुकाल में, जल में लघु शंका करने में, सुरापान में और गुरुपत्नी के साथ सहवास में। उसके बाद इन्द्र को स्वर्गलोक में जाने की आज्ञा मिल गई।
द्र. महाभारत, वनपर्व। 261. कल्पसूत्र (एस बी ई.), 2/1/131 1262. जैन परम्परांनसार भरत चक्रवर्ती के समय से इन्द्रमह का आरम्भ माना जाता है। इन्द्र ने
आभूषणों से अलंकृत अपनी उंगली भरत को दी और उसे लेकर भरत ने आठ दिन तक
उत्सव मनाया। आवश्यक चूर्णि, पृ. 213। द्ग. इपिक माइथोलॉजी, पृ. 1251 263. लादं देश में यह उत्सव श्रावण की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता था। निशीथ, 19/6065
की चूर्णि। रामायण; 4/16/36 के अनुसार गौड़ देश में इसे आसोज की पूर्णिमा को मनाते थे। वर्षा के बाद जब रास्ते स्वच्छ हो जाते थे और पूर्णिमा के दिन युद्ध के योग्य समझे
जाने लंगते, तैब इस उत्सव की धूम मचती थी। द्र. इपिक माइथोलॉजी, पृ. 125 आदि। 264. निशीथ सूत्र, 19/11-12। 265. वैदिक ग्रन्थों में नेगमेष हरिणेगमेष को हरिण शिरोधारक इन्द्र का सेनापति कहा गया है।
महाभारत में उसे अजामृत बताया है। द्र. ए.के. कुमारस्वामी, यज्ञाज, पृ. 121 266. कल्पसूत्र एस.बी.ई.2/26।अन्तः कृदृशा में भी हरिषेगमेषी का उल्लेख है। सन्तानोत्पत्ति के
लिए उसकी मनौती की जाती थी। द्र. जैन आगम साहित्य में भारतीय समाज, पृ. 4301 267. बृहद्वृत्ति, पत्र 187: इज्यन्ते पूज्यन्त इति यक्षाः। 268. उत्तरज्झयणं (सटिप्पण) पृ. 291 269. उत्तराध्ययनसूत्र,3/14 आदि। 270. वही, 16/161 271. वही, 12/81 272. वही, जयदिस्स जातक 5135 के अनुसार यक्षों की आंखें लाल रहती हैं। उनके पलक
नहीं लगते, उनकी छाया नहीं पड़ती और वह किसी से डरते नहीं। यक्षों और गन्धर्वो