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जैन संघ का स्वरूप • 103
निम्रन्थ धर्म महावीर के धर्म की आधारशिला
प्रामाणिक आधारों पर सिद्ध है कि महावीर ने अपने संघ को निर्ग्रन्थ धर्म पर
आधारित किया था। महावीर ने अपने संघ में परिष्कार, परिवर्द्धन और सम्वर्द्धन किया था। चार महाव्रतों के स्थान पर पांच महाव्रतों की स्थापना की।26 सचेल परम्परा के स्थान पर अचेल परम्परा को मान्यता दी। समिति-गुप्ति का प्रथम निरूपण कर उसका महत्व बढ़ाया।28 __भगवतीसूत्र में भगवान महावीर के मुख से कई बार यह कहलाया गया है कि यह सिद्धान्त पुरुषदानीय महावीर ने कहा है जिसको मैं भी कहता हूं। किसी भी स्थान पर महावीर अथवा उनके शिष्यों में से किसी ने भी ऐसा नहीं कहा कि महावीर का श्रुत अपूर्व अथवा नवीन है। इस प्रकार जैन परम्परा अपने इतिहास को महावीर से बहुत प्राचीन मानती है।३०
चतुर्विध संघ भी महावीर से पूर्व पार्श्वनाथ ने स्थापित किया था। नायाधम्मकहाओ में वर्णन है कि श्रमणोपासिका काली को जब वैराग्य उत्पन्न हुआ तब उसने आर्या पुष्पचूलिका के निकट पार्श्वधर्म को स्वीकार किया था। इससे स्पष्ट है कि पार्श्व ने श्रमणी तथा श्राविका के रूप में स्त्री अनुयायियों की संघ में उपेक्षा नहीं की। उनका संघ आठ के समूह में बंटकर आठ गणधरों के नेतृत्व में रहता था। __तुंगीयग्राम पार्श्वपत्यिक थेरों का केन्द्र माना गया था। वहां पर पार्श्व के अनुयायी साधु पांच सौ, पांच सौ के संघ बनाकर इतस्तत: भ्रमण करते थे। आसपास के पाश्र्वापत्यिक श्रावक उनके पास धर्म श्रवण के लिए जाते थे तथा उनसे तत्व निरूपण विषयक चर्चा किया करते थे। भगवतीसूत्र में विवरण है कि तुंगीय ग्राम के उत्तरपूर्वी दिशा में पुष्पावती चैत्य था। यहां के सम्पन्न निवासी श्रमण निर्ग्रन्थों में अगाध श्रद्धा रखते थे तथा अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णिमा, पड़वा अमावस्या की प्रतिपदा पर पौषध व्रत निराहार रह कर करते थे।4
महावीर की संघ व्यवस्था
भगवान महावीर व्यक्ति स्वातन्त्र्य के उद्गाता थे और साथ ही सामुदायिक मूल्यों के संस्थापक भी। उन्होंने अपने संघ में आत्म-नियन्त्रण, अनुशासन और व्यवस्था इन तीनों को समान रूप दिया। जिससे न व्यक्ति की स्वतन्त्र चेतना कुण्ठित हो और न सामुदायिक मूल्यों का लोप।
यद्यपि ऐतिहासिक दृष्टि से अध्यात्म साधना का संघीयकरण भगवान पार्श्व के समय ही हो चुका था, फिर भी महावीर ने युगीन अपेक्षाओं के परिवेश में