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अध्याय 3
जैन संघ का स्वरूप
जैन धर्म की प्राचीनता
जैन धर्म अत्यन्त प्राचीन धर्म है। जैन मतावलम्बी अपने सर्वोच्च आचार्यों को तीर्थंकर कहते हैं।' पार्श्वनाथ इस धर्म की चौबीस तीर्थंकर परम्परा के तेईसवें आचार्य थे। पार्श्वनाथ को प्रामाणिक आधार पर ऐतिहासिक पुरुष माना जाता है। इनके चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर महात्मा गौतम बुद्ध के समकालीन थे।'
अनुमान किया जाता है कि पार्श्वनाथ अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह के परम्परागत नैतिक सिद्धान्तों पर अधिक बल देते थे। तपस्या पर वह अवश्य बल देते थे किन्तु ब्रह्मचर्य को आध्यात्मिक जीवन के लिए अनिवार्य नहीं मानते थे और न ही नंगे रहते थे।
ऋग्वेद के ग्रन्थों में जैनों के दो तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेव तथा अरिष्ट नेमि के नामों का उल्लेख मिलता है। ऋषभदेव जैनों के प्रथम तीर्थंकर थे जिनका केशी के नाम से भी समीकरण किया जाता है। अरिष्टनेमि बाईसवें तीर्थंकर थे। भागवतपुराण' से इनकी ऐतिहासिकता की पुष्टि होती है। भागवतपुराण में कहा गया है कि ऋषभदेव के इस चरित्र को सुनकर कोंक, बैंक व कुटक का राजा अर्हन कलयुग में अपनी इच्छा से उसी धर्म का सम्प्रवर्तन करेगा इत्यादि। इस वर्णन से इस विषय में कोई सन्देह नहीं रह जाता कि भागवतपुराण का तात्पर्य यज्ञ में परमऋषियों द्वारा प्रसन्न किये जाने पर परीक्षित स्वयं श्री भगवान विष्णु महाराज नाभि का प्रिय करने के लिए उनके रनिवास में महारानी मरुदेवी के गर्भ में आये। उन्होने इस पवित्र शरीर का अवतार वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्मों को प्रकट करने की इच्छा से किया। 'अयमवतारो रजसोपप्लुत कैवल्योपशिक्षणार्थ : कहकर पुराणकार ने बताया है कि रजोगुण से भरे लोगों को कैवल्य की शिक्षा देने के लिए यह अवतार हुआ। डा० हीरालाल जैन के अनुसार इसका अर्थ है कि