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आगमकालीन धार्मिक एवं दार्शनिक विचार • 85
लोक धर्म
धर्म, तत्वरूप में मस्तिष्क की बौद्धिक मनोवृत्ति की अपेक्षा सहज ज्ञान और मनोवेग के ऊपर अधिक आधारित है। धर्म की सहायता से ही मनुष्य ने किसी निरन्तर विद्यमान कर्तव्य जिसे वह विश्व का नियामक समझता था-के अस्तित्व की कल्पना करके प्राकृतिक शक्तियों और विश्व के तथ्यों को प्रतिपादन करने का प्रयत्न किया। इस प्रकार विश्व के नियामक समझे जाने वाले अनेक देवी देवता
और पुरातन पवित्र आत्माओं का प्रादुर्भाव हुआ। भाव के स्तर पर मनुष्य अपने मर्त्य जीवन और देवतत्व के अमर जीवन की अपूरणीय खाई देखता है। देव महिमा के बोध से उसके मन में स्तुति, प्रार्थना एवं प्रणति की प्रवृत्तियां जागती हैं। देवता के इस मानसिक सान्निध्य से उसे यह आशा होती है कि उसका जीवन सुखी होगा तथा प्रेतलोक के स्थान पर देवलोक को प्राप्त होगा।
देवी-देवताओं का अस्तित्व भारत में अत्यन्त प्राचीन काल से चला आ रहा है।257 जैन सूत्रों में इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, मुकुन्द, शिव, वैश्रमण, नाग, यक्ष, भूत, आदि का उल्लेख किया गया है।258
दोगुन्दग देव नामक देवता की चर्चा उत्तराध्ययन सूत्र में प्राप्त होती है। यह त्रायस्त्रिंश जाति के देव होते हैं। वह सदा भोग परायण होते हैं।259 साथ ही वह सदा प्रमुदित मन रहने वाले, आनन्द देने वाले प्रासादों में स्त्रियों के साथ क्रीड़ा करते रहते हैं। सम्भवत: आगमकाल में जैनेतर सम्प्रटाय इनकी उपासना करते हों अथवा यह लोक पूजित हों।
इन्द्र
जैन सूत्रों में इन्द्रदेव का भी उल्लेख प्राप्त होता है। उन्हें सहस्त्राक्ष बताया गया है तथा स्वर्ग के देवताओं में द्युतिमान बताया गया है।260 इन्द्र मूलत: वैदिक देवता है तथा समस्त देवताओं में अग्रणी है। इन्द्र को परस्त्रीगामी माना जाता है। कल्पसूत्र के अनुसार इन्द्र अपनी आठ पटरानियों, तीन परिषदों, सात सैन्यों, सात सेनापतियों और आत्मरक्षकों से परिवृत्त होकर स्वर्गिक सुख का उपभोग करता है।261 इन्द्र मह उत्सव सब उत्सवों में श्रेष्ठ माना जाता था।262 निशीथसूत्र में इन्द्र, स्कन्द, यक्ष और भूत नामक महामहो के उत्सवों का उल्लेख है जो क्रम से263 आषाढ, आसोज, कार्तिक और चैत्र की पूर्णिमा के दिन मनाये जाते थे। यह उत्सव आमोद-प्रमोद के साथ मनाया जाता था।264