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आगमकालीन धार्मिक एवं दार्शनिक विचार • 89
यदि कर्म के सिद्धान्त को समझ लिया जाये तो मनुष्य जन्मजन्मान्तर की यातना यात्रा को रोक सकता है।
उदाहरण के लिए मृगापुत्र को अपने पूर्व भव में शूल में खोंसकर पकाया हुए मांस प्रिय था यह स्मरण दिलाते हुए उसे नरक में उसी के शरीर के मांस को काटकर, अग्नि जैसा लाल करके खिलाया गया। उसे सुरा, सीधु, मैरेय और मधु मदिराएं प्रिय थीं, यह याद दिलाकर उसे जलती हुई चर्बी और रुधिर पिलाया गया।303 यह इस बात की ओर इंगित करता है कि जैन आचार में जीव हिंसा को गर्हित माना जाता था और उसे हतोत्साहित करने के लिए धर्म का आवरण ओढ़ना पड़ा। इसी प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र में प्रेतात्माओं की चर्चा है जो नरक की यातनाएं सहते हैं। __ लोगों में अनेक प्रकार के धार्मिक अन्धविश्वास घर किये थे जैसे कि यह मान्यता कि चक्रवर्ती राजाओं और अरिहन्तों के जन्म से पूर्व उनकी माताएं प्रतीकात्मक स्वप्न देखती हैं।304 विभिन्न प्रकार के लक्षणशास्त्र:05 स्वप्नशास्त्र, निमित्त शास्त्र और कौतुक306 कार्य एवं कुहेटक विद्या307 कार्य समाज में सम्पन्न होते थे।
संदर्भ एवं टिप्पणियां
1. निग्गन्थे घम्मे, निग्गंठे पावयणे। 2. अरियधम्म। 3. समण धम्मे। 4. आचारांग, 1/1/11 5. वही, 1/1/31 6. ज्ञातधम्म कथा, 1/51 7. भगवतीसूत्र, 7/21 8. आचारांग सूत्र, 1/5/5। 9. वही। 10. भगवतीसूत्र 7/81 11. उत्तराध्ययन, 20/371 12. वही, 20/361 13. उत्तराध्ययन सूत्र, 14/181 14. हिरियन्ना, भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ. 1741 15. कर्म की भौतिक प्रकृति के समर्थन में जैन दार्शनिकों ने जो तर्क प्रस्तुत किये हैं वह
अतिरोचक हैं। सिद्धान्त यह है कि यदि कार्य भौतिक स्वरूप का है तो कारण भी भौतिक स्वरूप का ही होना चाहिए। उदाहरणार्थ, जिन परमाणुओं से विश्व की वस्तुएं बनी हैं उन्हें वस्तुओं के कारण माना जा सकता है। परमाणुओं को भौतिक तत्व मान लेने पर वस्तुओं के कारण को भी भौतिक मानना होगा। जैनों की इस मान्यता के विरुद्ध उठायी