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80 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
आहार निर्दोष है और बुद्धों के पारणे योग्य है। तात्पर्य यह है कि जो कार्य भूल से हो जाता है तथा मन के संकल्प के बिना किया जाता है, वह बन्धन का कारण नहीं होता। 228 इसके अतिरिक्त वह यह भी मानते थे कि जो व्यक्ति प्रतिदिन दो हजार शाक्य भिक्षुओं को अपने यहां भोजन कराता है, वह महान पुण्य राशि उपार्जित करके उसके फलस्वरूप आरोप्य नामक उत्तम देव होता है।
जैन चिन्तक अपने मत का प्रतिपादन करते हुए शाक्यों के मत का खण्डन करते हैं। उनके अनुसार जो पुरुष पांच समिति और तीन गुप्तियों का पालन करते हुए सम्यग्ज्ञानपूर्वक क्रिया करता है और अहिंसाव्रत का पालन करता है, उसी की भावशुद्धि होती है। परन्तु जो अज्ञानी है और मोह में पड़कर खली और पुरुष के अन्तर को नहीं जानता उसकी भावशुद्धि अत्यन्त पापजनक ही है। चाहे वह हिंसा स्वयं की गई हो, अथवा दूसरे से कराई गई हो या उसका अनुमोदन किया गया हो, हिंसा कभी धर्मयुक्त नहीं हो सकती । यदि ऐसे मनुष्यों का भाव शुद्ध मान लिया जाये तो जो लोग रोग आदि से पीड़ित प्राणी को विष आदि का प्रयोग करके मार डालने का उपदेश देते हैं, उनके भावों को भी शुद्ध मानना चाहिए। यदि भावशुद्धि ही एक मात्र कल्याण का साधन है तो फिर बौद्ध भिक्षु सिर का मुण्डन और भिक्षावृत्ति आदि बाह्य क्रियाएं क्यों करते हैं? यह तो अत्यन्त मूर्ख के लिए भी संभव नहीं कि वह बालक को खलीपिण्ड समझकर भून ले और खा जाये। यह तो स्पष्ट ही असत्य भाषण है जबकि जिनेन्द्र शासन के अनुयायी बुद्धिमान साधक प्रणियों की पीड़ा या कर्मफल का भली भांति विचार करके शुद्ध भिक्षान्न को ही ग्रहण करते हैं। वह बयालीस दोषों को वर्जित करके जीवविघात से सर्वथा दूर रहने का प्रयत्न करते हैं। जैसे बौद्ध साधक भिक्षापात्र में आये हुए मांस को भी बुरा नहीं मानते वैसा आर्हत साधक नहीं करते। जो कपट से जीविका करता है वह साधु बननें के योग्य नहीं है। इसलिए जैन धर्म ही पवित्र एवं आदरणीय है। बौद्धों का यह कथन भी उपयुक्त नहीं है कि अन्न भी मांस के सदृश है क्योंकि वह भी प्राणी का अंग है। किन्तु प्राणी का अंग होने पर भी जगत में कोई वस्तु मांस और अमांस मानी जाती है। जैसे दूध और रक्त दोनों ही गाय के विकार हैं तथापि लोक में यह दोनों अलग-अलग माने जाते हैं। दूध भक्ष्य और रक्त अभक्ष्य माना जाता है। अपनी माता और पत्नी दोनों ही स्त्री जाति की होने पर भी माता अगम्य और पत्नी गम्य मानी जाती है। यही अन्तर अन्न और मांस में है 1 29
बौद्धों का यह कथन भी निराधार है कि जो पुरुष बोधिसत्व के तुल्य दो हजार भिक्षुओं को प्रतिदिन भोजन कराता है उत्तम गति को प्राप्त करता है। जबकि ऐसे मांसाहारी भिक्षुओं को भोजन कराने वाला असंयमी होता है। उसके हाथ रक्त से सने रहते हैं तथा वह व्यक्ति उत्तम साधुओं से निन्दित होता है, हिंसा का भागी होता है। अत: बौद्धतापस अज्ञानी, अनार्य और रसलोलुप हैं। ऐसे पापकर्मा लोगों