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30 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति साधक को अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्गों को सहना चाहिए। माता-पिता और स्नेही परिजनों के राग भाव और विलास आदि से विकम्पित होकर साधना पथ का त्याग नहीं करना चाहिए। उपसर्ग से होने वाले आध्यात्मिक एवं मानसिक विषाद और कुशास्त्रों के कुतर्कों से त्रस्त होकर संयम साधना से भ्रष्ट नहीं होना चाहिए।
चतुर्थ अध्ययन स्त्री-परिज्ञा है। साधक को स्त्री-विषयवासना के व्यामोह में नहीं फंसना चाहिए। जो साधक भोग विलास की आसक्ति में आकर अपने पथ से भ्रष्ट हो जाता है, वह सदा दु:ख पाता है।
पांचवें अध्ययन का नाम नरक विभक्ति है। इसमें नरक और नारकीय जीवन का वर्णन है। नरक में प्राप्त होने वाली वेदना एवं दुःखों को देख समझ कर साधक परधर्म एवं सांसारिक विषय कषायों का त्याग करके स्वधर्म स्वीकार करे।
छठा वीर स्तति अध्ययन है। इसमें गणधर सधर्मा स्वामी ने श्रमण भगवान महावीर की स्तुति की है, उनका गुणकीर्तन किया है।
सातवां कुशील परिभाषा अध्ययन है। इसमें शुद्ध आचार के विपरीत यज्ञयाग, स्नान, पंचाग्नि आदि कुशील को धर्म मानने का निषेध किया है। इनमें धर्म मानने वाले संसार में परिभ्रमण करते हैं।
आठवां अध्ययन वीर्य अध्ययन है। इसमें बल, शक्ति एवं पराक्रम पुरुषार्थ का वर्णन है।
नौवें, दसवें और ग्यारहवें अध्ययन में क्रमश: धर्म, समाधि और मोक्ष-मार्ग का वर्णन है। इसमें इन्द्रियों के विषय एवं कषाय भाव का त्याग करके आत्म धर्म में रमण करने का उपदेश दिया है। 11वें में ज्ञान, दर्शन, चरित्र-रत्नत्रय को मोक्ष मार्ग कहा है।
बारहवां समवसरण अध्ययन है। इसमें क्रियावादी, अक्रियावादी, अज्ञानवादी और विनयवादी परमत के दोषों को दिखाकर स्वदर्शन के सिद्धान्त को समझाया
तेरहवें से पन्द्रहवें तक के तीन अध्ययनों में क्रमश: तथ्य-धर्म के यथार्थ स्वरूप और पार्श्वस्थ साधुओं के स्वरूप, ग्रन्थपरित्याग-परिग्रह के त्याग और आदान समिति का वर्णन है। शुद्धाचारी धर्मोपदेशक, स्वच्छंदाचारी अविनीत के लक्षणों का वर्णन इस अध्ययन में है।
चौदहवें अध्ययन में एकल विहार के दोष, हित शिक्षा का ग्रहण व पालन तथा धर्मकक्षा की रीति बताई है। __आदानीय नामक पन्द्रहवें अध्ययन में श्रद्धा, दया, धर्म और दृढ़ता से मोक्ष की साधना होने का निरूपण है। . . सोलहवें अध्याय का नाम गाथा है। इसमें ब्राह्मण, श्रमण निर्ग्रन्थ और भिक्षु इन चारों का विस्तार से वर्णन किया गया है।