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आगमकालीन धार्मिक एवं दार्शनिक विचार • 69
उस पर सेक कुछ समय के लिए आराम पहुंचाता है और इससे कोई हानि भी नहीं होती उसी प्रकार की स्थिति स्त्रियों के साथ आनन्द की है।179 जैनमत में मुक्ति के लिए ज्ञान आवश्यक नहीं है किन्तु तप आवश्यक है। तप ही कर्मपथ है। अज्ञानवादियों के अनुसार परलोक, औपपातिक जीव, कर्म तथा मुक्ति के बाद की अवस्था इन विषयों का निश्चित ज्ञान असम्भव है।180
__ "माहण समणा एगे सव्वे नाणं सयं वए। सव्व लोगे वि जे पाणानते जाणांति किंचण'-अर्थात् कुछ श्रमणों एवं ब्राह्मणों की दृष्टि से उनके अतिरिक्त सारा जगत अज्ञानी है। यह अज्ञानवाद की भूमिका है। भगवान महावीर के समकालीन छ: तीर्थंकरों में से संजयवेलट्ठि पुत्र नामक विचारक अज्ञानवादी था। सम्भवत: उसी को निर्दिष्ट करने के लिए इस गाथा की रचना हुई हो। उसके मतानुसार तत्वविषयक अज्ञेयता अथवा अनिश्चितता अज्ञानवाद की आधारशिला है। यह मत पाश्चात्य दर्शन के अज्ञेयवाद अथवा संशयवाद से मिलता जुलता है। संजय के कुछ विषयों को 'चतुष्कोटि' का सिद्धान्त 82 बौद्धों तथा जैनों के परवर्ती विचारों पर प्रकारांतर से प्रभाव डाले बिना नहीं रहा।183 जैनों का यदृच्छावाद तथा बौद्धों का प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त ऐसे ही विचारकों के मत थे। इस दृष्टि से मोक्ष बन्धन के समान प्रारब्ध से नियन्त्रित और पुरुषार्थहीन हो गया। कालवाद, स्वभाववाद, नियतिवाद तीनों इसके अन्तर्गत हो गए।
नियतिवाद
व्यक्ति के जीवन के विषय में यह आस्था पुरानी और विश्वव्यापी रही है कि वह एक पूर्व निर्धारित भाग्य के अनुसार एक निश्चित भविष्य की ओर गतिशील होता है। इस धारणा में व्यक्ति के जीवन का अन्त या सार्थक जीवन का अन्त मृत्यु में हो जाता है तथा उसमें विकासात्मक लक्ष्य कोई स्थान नहीं पाता न ही मनुष्य अपने कर्मों के लिए उत्तरदायी होता है। इसे दर्शन की भाषा में नियतिवाद कहते हैं। यह नियतिवाद प्रारब्ध कर्मों पर निर्भर था। पुरुषार्थ की इसमें अपेक्षा ही नहीं थी।
जैनागमानुसार नियतिवादियों की मान्यता थी कि भिन्न-भिन्न जीव जो सख और दुख का अनुभव करते हैं, यथा प्रसंग व्यक्तियों का जो उत्थान और पतन होता है, यह सब जीव के अपने पुरुषार्थ के कारण नहीं होता है। इस सबका कर्ता जीव स्वयं नहीं है, बल्कि नियति है। जहां पर जिस प्रकार तथा जैसा होने का समय आता है वहां पर उस प्रकार और वैसा ही होकर रहता है। उसमें व्यक्ति के पुरुषार्थ, काल अथवा कर्म आदि कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकते। जगत में सब कुछ नियत है। अनियत कुछ भी नहीं है। सूत्रकृतांग सूत्र के अनुसार क्रियावादी और अक्रियावादी दोनों ही नियतिवादी हैं क्योंकि नियतिवाद के अनुसार क्रिया