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70 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
तथा अक्रिया दोनों का कारण नियति है। अतएव नियतिवादी मानते हैं कि जो साधक तपस्वी अकेला निर्द्वन्द्व होकर विचरण करता है, वह चाहे कच्चा पानी पीए, चाहे बीजकाय वनस्पति का सेवन करे, चाहे स्त्रियों का संसर्ग एवं सेवन करे, उसे किसी प्रकार का पापदोष नहीं लगता । 184 भगवान महावीर के युग में गोशालक का भी यही मत था जिसका उल्लेख भगवतीसूत्र आदि अन्य आगमों में भी उपलब्ध होता है। निश्चय ही नियतिवाद की यह परम्परा गौशालक से पूर्व भी रही होगी 186 गोशालक ने इसी सिद्धान्त को अपने मत का आधार बनाया था। सूत्रकृतांग के द्वितीय उद्देशक के आरम्भ में नियतिवाद का उल्लेख है। मूल में इसके प्रणेता गौशालक का कहीं भी नाम नहीं है। 187 उपासकदशा नामक सप्तम अंग में गोशाल तथा उसके मत का नियतिवाद के नाम से उल्लेख है । 188 इसमें बताया गया है कि गोशालक के अनुसार बल, वीर्य, उत्थान कर्म आदि कुछ नहीं है। सब भाव सदा के लिए नियत हैं। बौद्धग्रन्थ सामंज्जफल सुत्त में अजातशत्रु ने मक्खली गोशाल
मत को संसारविशुद्धि का मत कहा है । 189
जैन श्रमणों का मत था कि सजीव जल का प्रयोग हिंसा है। अदत्तादान है। जबकि आजीवकों का मत था कि जल सजीव नहीं है अतः इसका प्रयोग करना न हिंसा है और न अदत्तादान । वह इस जल का उपयोग कर सकते हैं, फिर भी केवल पीने के लिए इसका उपयोग करते थे । " आजीवकों का नीतिशास्त्र कुछ भी रहा हो किन्तु यह निश्चित है कि वह कठोर तप का अभ्यास करते थे जिसका परिणाम जैनों के समान अनशन मरण होता था । 1 91
जैन ग्रन्थों में आजीवक अक्रियावादी कहे गये हैं। आजीवकों का निगण्ठों अर्थात् जैनों से विशेष सम्बन्ध था। गोशाल और भगवान महावीर न केवल परिचित थे अपितु कुछ वर्षों तक एक साथ रहे थे। 192 आजीवकों के अनेक सिद्धान्त निगण्ठों में भी स्वीकृत हुए। आजीवक छ: अभिजातियों में विश्वास करते थे। वही निगण्ठों में लेश्याओं के रूप में प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार सत्व, प्राणभूत और जीव इन चारों पदों का सहप्रयोग, एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय आदि जीवों का वर्गीकरण और सिद्धों की सर्वज्ञता में विश्वास आदि धारणाएं भी समान हैं। किन्तु जहां आजीवक अक्रियावादी थे और जीव को रूपी मानते थे वहीं निगण्ठ क्रियावादी थे और जीव को अरूपी मानते थे । 194
प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रमेण यो र्थः, सो वश्य भवति नृणां शुभो वा । भूतानां महति कृपे पि हि प्रयत्ने, नाभाव्यं भवति, न भावितो अस्तिनाश: ।।
जब हम यह देखते हैं कि बहुत से मनुष्य अपने अपने मनोरथ की सिद्धि के लिए समान रूप से प्रयोग करते हैं परन्तु किसी के कार्य की सिद्धि होती है और