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58 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति की गौंवें इन्द्रियां जुते हुए दुर्धर रथ शरीर के साथ दौड़ रही थीं वे निश्चल होकर मौद्गलानी मुद्गल की स्वात्मवृत्ति की ओर लौट पड़ीं।106 तात्पर्य यह कि मुद्गल ऋषि की जो इन्द्रियां परांगमुखी थीं, वह उनके योगी ज्ञानी नेता केशी वृषभ के धर्मोपदेश सुनकर अन्तर्मुखी हो गयीं।
निर्ग्रन्थ नग्न सम्प्रदाय
उत्तराध्ययन में 'नगिणिण' शब्द मिलता है। जिसका अर्थ है नग्नता। उत्तराध्ययन के चूर्णिकार ने उस समय प्रचलित कुछ नग्न सम्प्रदायों का उल्लेख किया है जैसे मृग चारिक, उद्दण्डक (हाथ में डण्ड ऊंचा कर चलने वाले तापस) तथा जैन व आजीवक साधु जो कि नग्न रहते थे।107 इस संदर्भ में ऋग्वेद में उल्लिखित शिश्नदेव भी महत्वपूर्ण है।108
इस प्रकार ऋग्वेद में उल्लिखित वातरशना मुनियों के निर्ग्रन्थ साधुओं तथा उन मुनियों के नायक केशी मनि का ऋषभदेव के साथ एकीकरण हो जाने से जैन धर्म की प्राचीन परम्परा पर बड़ा महत्वपूर्ण प्रकाश पड़ता है। चारों वेदों में ऋग्वेद प्राचीनतम है और ऋग्वेद की ऋचाओं में ही वातरशना मुनियों तथा केशी वृषभ का उल्लेख होने से जैन धर्म की प्राचीनता कम से कम भी 1500 ई.पू. ठहरायी जा सकती है। केशी नाम जैन परम्परा में प्रचलित रहा इसका प्रमाण यह है कि महावीर के समय में पार्श्व सम्प्रदाय के नेता का नाम केशीकुमार था।109
व्रात्य
अथर्ववेद के पन्द्रहवें अध्याय में व्रात्यों का वर्णन आया है। इस व्रात्य काण्ड का सम्बन्ध निश्चय ही किसी ब्राह्मणेतर परम्परा से था। आचार्य सायण ने व्रात्य को विद्वत्तम महाधिकार, पुण्यशील, विश्वसम्मान्य और ब्राह्मण विशिष्ट कहा है।।10 उपनयनादि से हीन मनुष्य व्रात्य कहलाते थे। ऐसे मनुष्यों को सामान्यत: वैदिक कृत्यों के लिए अनाधिकारी और सामान्यत: पतित माना जाता था।।11
उपनयनादि से हीन मनुष्य जिसने गायत्री का उपदेश न कराया हो, वह पापी है तथा आर्यसमाज से बहिष्कृत है। जिस ब्राह्मण का 16वें, क्षत्रिय का 22वें, वैश्य का 24वें वर्ष तक उपनयन संस्कार न हों वह पतित सावित्रीक हैं या व्रात्य हैं।12 इनको वेदाध्ययन करना, यज्ञों में जाना|13 एवं इनसे विवाह आदि सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करने का निषेद्य था।14 यदि तीन पीढी तक उपनयन न किया जाये तो वह पवित्र स्मृतियों के घातक कहे जाते थे। 15
सामवेद के ताण्ड्य ब्राह्मण, लाट्यायन, कात्यायन व आपस्तम्बीय श्रौतसूत्रों