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66 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
के भेद से चार प्रकार की है। अतः वैनयिकवाद के 8 x 4 = 32 भेद हुए ।
वैनयिकमतं विनयश्चेतोवाक् कायदानतः कार्यः । सुरनृपतियतिज्ञातिस्थविराघममातृपितृषु सदा ||155
पालि साहित्य में श्रमणों के चार प्रकार बताये गये हैं- मग्गजिन, मग्गदेसिन, मग्गजीविन और मग्गदूसिन | 156 इनमें पारस्परिक मतभेद उत्पन्न होने के फलस्वरूप अनेक दार्शनिक सम्प्रदाय उठ खड़े हुए, जिन्हें बुद्ध ने "द्विट्ठि” की संज्ञा दी। 157 इन सभी विवादों का संकलन बासठ प्रकार की मिथ्याद्दष्टियों (मिच्छादिठि) में किया गया है। जैन साहित्य में इन्हीं दृष्टियों को विस्तार से 363 श्रेणियों में विभक्त कर समझाने का प्रयत्न किया गया है। 158 ठाणांग में श्रमणों के पांच भेद निर्दिष्ट हैं। निगण्ठ (जैन) (सक्क बौद्ध) तापस, गेरु और परिव्राजक | 159 सुत्तनिपात में इनके तीन भेद मिलते हैं- तित्थिय, आजीविक और निगण्ठ । इन्हें वादसील कहा गया है। 160
भगवान महावीर पालि निगण्ठ नाथयुत्त के समकालीन पूरणकस्सप, मक्खलिगोशाल, अजितकेशकम्बलि, पकुधकच्छायन, संजयबेलट्ठिपुत्त और महात्मा बुद्ध रहे हैं। त्रिपिटक में इन सभी आचार्यों को सड्धीचैव गणी च, गणाचारियो च, या तो, यसस्सी, तित्थकरो, साधुसम्मतो बहुजनस्स, रत्तजं, चिर पब्बजितो, अद्धगतो वयोनुपतो" कहा गया है। इनमें अधिकांश आचार्य श्रमण परम्परा से सम्बद्ध हैं।
उक्त छः शास्ताओं के अतिरिक्त कुछ शास्ता और भी थे जो अपने मतों का प्रवर्तन और प्रचार समाज में कर रहे थे। ब्रह्मजालसुत्त के बासठ दार्शनिक मत इस प्रसंग में उल्लेखनीय हैं। इन्हें भी गम्भीर, दुर्बोध आदि कहा गया है। यह मत इस प्रकार हैं
(1) पुज्जन्तानुदिट्ठी अठारस हि वत्थूहि
(अ) सस्सतवाद
(ब) एकच्चसस्सतवाद
(स) अनन्तानन्द वाद
(द) अमराविकसेपवाद (य) अधिच्चसमुप्पन्नवाद
(2) अपरन्तानुदिट्ठि चतुचतारीयसाय वत्थूहि— (अ) उद्धमाघातनिका सन्जीवादा
(ब) उद्धमाघातनिका अंसन्जीवादा
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