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64 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति 6. श्रोत्रेन्द्रियमुण्ड-कर्णेन्द्रिय के विकारों का अपनयन करने वाला। 7. घाणेन्द्रिय मुण्ड-घ्राणेन्द्रिय के विकारों का अपनयन करने वाला। 8. रसेन्द्रिय मुण्ड–रसेन्द्रिय के विकार का अपनयन करने वाला। 9. चक्षुइन्द्रिय मुण्ड-चक्षु के विकार का अपनयन करने वाला। 10. स्पर्शेन्द्रिय मुण्ड-स्पर्शेन्द्रिय के विकार का अपनयन करने वाला।
आगमकालीन चिन्तन धाराएं
डा. सुकुमार दत्त के शब्दों में छठी शताब्दी ई. पूर्व का युग एक बौद्धिक और आध्यात्मिक क्रान्ति का युग था। जबकि ब्राह्मण और श्रमण आचार्य और भिक्षु नाना धार्मिक, दार्शनिक मतों की उद्भावना और नाना नवीन मार्गों और सम्प्रदायों का प्रचार कर रहे थे।।48 यह भी निर्विवाद है कि आगमकालीन भारतीय चिन्तना का
और जैन धर्म का मूल आध्यात्मिक जिज्ञासा था, उपनिषद्, बौद्ध धर्म और जैन धर्म इस विकल जिज्ञासा के सुपरिणाम हैं। इतना भी निश्चित ही है कि इस युग के चिन्तक जीवन को अनिवार्यतः दु:ख का पर्याय मानते थे और इस दुःखसन्तप्तता से मुक्ति ही उनके दर्शन का केन्द्रबिन्दु थी। किन्तु इन विविध विचारकों के मतभेद केवल इस विषय पर थे कि बन्धन के कारण क्या हैं और मुक्ति के उपाय क्या हैं।
महावीर और बुद्धकालीन प्रमुख श्रमण सम्प्रदाय भूतवादी, तज्जीव तच्छरीरवादी, आत्मषष्टवादी, आत्माद्वैतवादी, सांख्यवादी, ईश्वरवादी तथा नियतिवादी थे।149 इसके अतिरिक्त दु:खवादी, निवृत्तिवादी, निरीश्वरवादी, जीववादी और क्रियावादी अन्य प्रमुख सम्प्रदाय थे।।50 उनकी दार्शनिक निष्ठा का मूल आधार संसारवाद, कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धान्त थे।
सूत्रकृतांगसूत्र'51 में अन्य मतमतान्तरों की चर्चा है जैसे क्रियावाद, अक्रियावादी, विनयवाद, अज्ञानवाद, वेदवाद, हिंसावाद, हस्तितापसवाद आदि। कहीं इनका संक्षेप में और कहीं विस्तार से उल्लेख हुआ है। परन्तु नियुक्तिकार भद्रबाहु ने इसे विस्तार दिया और टीकाकार आचार्य शीलांक ने इन मतमतान्तरों की मान्यताओं का नामोल्लेख किया है।
आचार्य शीलांक का यह प्रयास दार्शनिक क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण है। टीकाकारों के अनुसार क्रियावादियों के एक सौ अस्सी सम्प्रदाय, अक्रियावादियों के चौरासी, अज्ञानवादियों के सड़सठ तथा विनयवादियों के बत्तीस उप सम्प्रदाय अथवा पंथ हैं। इस प्रकार कुल मिलाकर तीन सौ तिरसठ मतों की चर्चा सूत्रकृतांग सूत्र में है।।52 यह तीन सौ तिरसठ मत इस प्रकार हैं