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60 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
पुरातात्त्विक साक्ष्य
सिन्धुघाटी से प्राप्त मूर्तियों और कुषाणकालीन जैन मूर्तियों में अपूर्व साम्य है। कायोत्सर्ग मुद्रा जैन परम्परा की ही देन है। प्राचीन जैन मूर्तियां अधिकांशत: इसी मुद्रा में प्राप्त होती हैं। मोहनजोदड़ो की खुदाई से प्राप्त मूर्तियों की विशेषता यह है कि वे कायोत्सर्ग अर्थात खड़ी मुद्रा में हैं, ध्यानलीन हैं और नग्न हैं। खड़े रह कर कायोत्सर्ग करने की पद्धति भी जैन परम्परा में बहुप्रचलित है। इसी मुद्रा को स्थान या ऊर्ध्वस्थान कहा जाता है। पतंजलि ने जिसे आसन कहा है जैनाचार्य उसे स्थान कहते हैं।125 स्थान का अर्थ है गति-निवृत्ति जिसके तीन प्रकार हैं
1. उर्ध्वस्थान-खड़े होकर कायोत्सर्ग करना। 2. निषीदन स्थान-बैठकर कायोत्सर्ग करना। 3. शयनस्थान-सोकर कायोत्सर्ग करना।
पर्यंकासन अथवा पद्मासन जैनमूर्तियों की विशेषता है। धर्म परम्पराओं में योगमुद्राओं का विभेद होता था। उसी के सन्दर्भ में आचार्य हेमचन्द्र ने लिखा हैप्रभो! आपकी पर्यंकासन और नासाग्र दृष्टिवाली योगमुद्रा को भी परतीर्थिक नहीं समझ पाये हैं तो भला वे और क्या सीखेंगे?126 प्रोफेसर प्राणनाथ ने मोहनजोदड़ो की एक मुद्रा पर जिनेश्वर पढ़ा है।127 डेल्फी से प्राप्त एक मूर्ति कायोत्सर्ग मुद्रा में है, ध्यानलीन है और उसके दोनों कन्धों पर ऋषभ की भांति केशराशि लटकी हुई है। डा० कालीदास नाग ने इसे जैन मूर्ति के अनुरूप बताया है। यह लगभग दस हजार वर्ष पुरानी है।।28 यह भी श्रमण संस्कृति की सुदीर्घ परम्परा के प्रमाण हैं। मोहनजोदड़ो से प्राप्त मूर्तियों के सिर पर नागफण का अंकन है। यह नागवेश के सम्बन्ध का सूचक है। सातवें तीर्थंकर सुपार्श्व के सिर पर सर्पमण्डल का छत्र था।।29 नागजाति वैदिक काल से पूर्ववर्ती भारतीय जाति थी। उसके उपास्य ऋषभ, सुपार्श्व और तीर्थंकर भी प्राग्वैदिक काल में हुए।।30 इससे भी हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि श्रमण परम्परा वैदिक काल से पूर्ववर्ती थी।
यह भी प्रमाणित है कि जैनों का इतिहास महावीर से बहुत प्राचीन था तथा विद्यमान श्रमण परम्परा से प्रादुर्भूत हुआ था।
श्रमणों के प्रकार
जैन साहित्य में श्रमणों के पांच विभाग बताये गये हैं।3]