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आगमकालीन धार्मिक एवं दार्शनिक विचार • 61
1. निर्ग्रन्थ जैनमुनि (णिग्गंथ, खमण )
2. शाक्य - बौद्ध भिक्षु ( राबल, रूपड)
3. तापस - जटाधारी बनवासी तपस्वी (तापस, वणवासी)
4. गैरुक - त्रिदण्डी परिव्राजक (गेरुअ परिवाजय)
5. आजीवक - गोशालक के शिष्य - (आजीवय, मंडराभिक्खु) 13
निशीथचूर्णि में अन्य तीर्थंकर श्रमणों के तीस गणों का उल्लेख मिलता है। 133 बौद्धत्रिपिटक से यह प्रकट है कि बुद्ध के समय में भारतवर्ष में श्रमणों के तिरसठ सम्प्रदाय विद्यमान थे। जिनमें छ: बहुत प्रसिद्ध थे।
बुद्ध के अतिरिक्त श्रमण संघ के छः अन्य धर्मोपदेशकों का उल्लेख मिलता है।।34 इन छ: सम्प्रदायों के आचार्य थे पूरणकस्सप, मंक्खली गोशाल, अजितकेश कम्बलि, पकुध कच्छायन, निर्ग्रन्थनाथपुत्र 'महावीर' और संजय बेलट्टिपुत्त ।
दशवैकालिक निर्युक्ति में श्रमण के अनेक पर्यायवाची नाम बतलाये गये हैं। प्रव्रजित, अणगार, पाषण्ड, चरक, तापस, भिक्षु, परिव्राजक, श्रमण, निर्ग्रन्थ, संयत, मुमुक्षुव्रत, तीर्ण, द्रव्य, मुनि, त्रायी, शान्त, दान्त, विरत, रुक्ष एवं तीरस्थ 1135 इन नामों में चरक, तापस, परिव्राजक आदि शब्द निर्ग्रन्थों से भिन्न श्रमण सम्प्रदाय के सूचक हैं। श्रमण के एकार्थवादी शब्दों में सबका संकलन किया गया है। 136
जैन श्रमण
तत्वार्थसूत्र 37 तथा स्थानांगसूत्र 38 में जैन श्रमणों के पांच भेद बताये गये हैं। यथा - पुलाक, बकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ तथा स्नातक ।
पुलाक
निःसार धान्यकणों की भांति जिसका चरित्र निःसार हो उसे पुलाक निर्ग्रन्थ कहते हैं। इसके दो भेद हैं- लब्धिपुलाक तथा प्रतिषेवापुलाक। संघ सुरक्षा के लिए पुलाक लब्धि का प्रयोग करने वाला लब्धिपुलाक कहलाता है तथा ज्ञान की विराधना करने वाला प्रतिषेवापुलाक कहलाता है। इससे भी उत्तर पांच अन्य भेद हैं।
1. ज्ञान पुलाक- स्खलित, मिलित आदि ज्ञान के अतिचारों का सेवन करने वाला।
2. दर्शनपुलाक—– सम्यक्त्व के अतिचारों का सेवन करने वाला ।