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आगमकालीन धार्मिक एवं दार्शनिक विचार • 59
में व्रात्यस्तोम विधि द्वारा उन्हें शुद्ध कर वैदिक परम्परा में सम्मिलित करने का भी वर्णन है। यह व्रात्य वैदिक विधि से अदीक्षित व संस्कारहीन थे। वे अदुरुक्तवाक्य को दुरुक्त रीति से प्राकृत भाषा में बोलते थे। वे ज्याह्नद प्रत्यंचारहित धनुष धारण करते थे। लिच्छवि, नाथ, मल्ल, आदि जातियों को व्रात्यों में गिना जाता था।16
चन्द्रगुप्त मौर्य को भी जैन धर्म का उपासक होने के कारण ही व्रात्य का विशेषण प्राप्त हुआ था। इन तथ्यों के सूक्ष्मविवेचन से ज्ञात होता है कि यह व्रात्य भी श्रमण परम्परा के गृहस्थ व साधु थे जो वेद विरोध होने से वैदिक अनुयायियों के कोप भाजन हुए थे। किन्तु यज्ञ व हिंसा के विरोधी होने के कारण उपनिषदों में इनकी प्रशंसा की गयी है।17
अर्हन
ऋग्वेद में भगवान ऋषभ के अनेक उल्लेख मिलते हैं जिनमें से अर्हन भी एक है। अर्हन श्रमण संस्कृति का प्रिय शब्द है। श्रमण अपने वीतरागात्माओं को अर्हन कहते हैं। वैदिक साहित्य के अनुसार असुर आर्हत धर्म के उपासक थे। आश्चर्य का विषय है कि जैन साहित्य में इसकी स्पष्ट चर्चा नहीं मिलती। किन्तु पुराण और महाभारत में इस प्राचीन परम्परा के अवशेष सुरक्षित हैं।
यति
ऋग्वेद में मुनियों के अतिरिक्त यतियों का भी उल्लेख बहुतायत से आया है। यह यति भी श्रमण परम्परा के साधु ही सिद्ध होते हैं। जैन परम्परा में यह संज्ञा साधु के लिए ही प्रयुक्त होती आई है। यद्यपि आरम्भ में ऋषियों, मुनियों और यतियों के सम्बन्ध सौजन्यपूर्ण थे और वह समानरूप से पूजित थे किन्तु कालान्तर में यतियों के प्रति वैदिक परम्परा में आक्रोश भाव उत्पन्न हो गये। ताण्ड्य ब्राह्मण में उल्लेख है कि इन्द्र व यतियों के बीच शत्रुता थी।120 इन्द्र द्वारा यतियों को शालावृकों, शृंगालों व कुत्तों द्वारा नुचवाये जाने का उल्लेख है।12। किन्तु इन्द्र के इस कार्य को देवताओं ने उचित नहीं समझा और इसके लिए इन्द्र का बहिष्कार भी किया। 22 ताण्ड्य ब्राह्मण के टीकाकारों ने यतियों का अर्थ किया है-वेद विरुद्ध नियमोपेत, कर्मविरोधिजन, ज्योतिष्टोमादि अकृत्वा प्रकारान्तरेण वर्तमान आदि। इन विशेषणों से उनकी श्रमण परम्परा स्पष्ट हो जाती है। उपनिषद काल में यति तापस कह जाने लगे।।23 भगवद्गीता में इन्हें योगप्रवृत्त माना गया है। वह काम, क्रोध रहित, संयमचित्त व वीतराग कहे जाते थे। 24