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56 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
धान्य आदि परिग्रह, यहां तक कि वस्त्र का भी परित्याग कर, भिक्षावृत्ति से रहते हैं। शरीर का संस्कार स्नान आदि से न कर अस्नान, अदन्तधावन द्वारा मल धारण किये रहते हैं। मौन वृत्ति का पालन करते हैं और देवराधना की अपेक्षा आत्मध्यान में रत रहते हैं। __स्पष्टत: यह उस श्रमण परम्परा का प्राचीन रूप है जो आगे चलकर अनेक अवैदिक सम्प्रदायों विशेषरूप से जैन तथा बौद्ध सम्प्रदाय में आज भी विद्यमान हैं। प्राचीन समस्त भारतीय साहित्य वैदिक, बौद्ध व जैन तथा शिलालेखों में भी ब्राह्मण और श्रमण सम्प्रदायों का उल्लेख मिलता है। जैन एवं बौद्ध साधु श्रमण ही कहलाते हैं। वैदिक परम्परा में आध्यात्म परम्परा के प्रतीक ऋषि कहलाते थे जिनका वर्णन ऋग्वेद में बारम्बार आया है। श्रमण धर्म में यही मुनि कहलाते थे जिनका उल्लेख ऋग्वेद में वातरशनामुनि के रूप में आया है।
केशी
ऋग्वेद में केशी की स्तुति इस प्रकार की गयी है कि केशी अग्नि, जल तथा स्वर्ग
और पृथ्वी को धारण करता है। केशी समस्त विश्व के तत्वों का दर्शन कराता है। केशी ही प्रकाशमान ज्ञान ज्योति केवलज्ञानी कहलाता है।100 केशी की यह स्तुति वातरशना मुनियों के वर्णन में की गई है, जिससे प्रतीत होता है कि केशी वातरशना मुनियों के वर्ण के प्रधान थे।
जैन परम्परा के अनुसार ऋषभ जब मुनि बने तब उन्होंने चार मुष्टि केश लौंच किया जबकि सामान्य परम्परा पांच मुष्टि लोच करने की है। भगवान केशलौंच कर रहे थे, दोनों पार्श्व भागों का केशलौंच करना बाकी था तब देवराज शकेन्द्र ने भगवान से प्रार्थना की कि इतनी रमणीय केशराशि को इसी प्रकार रहने दें। भगवान ने उसकी बात मानी और उन्हें वैसे ही रहने दिया। स्कन्धों पर लटकते धुंघराले केशों की वल्लरी ऋषभ की प्रतिमा की प्रतीक है।।। ऋषभ को जटाशेखर युक्त कहा है।102 स्पष्टत: ऋग्वेद के इन केशी वातरशना मुनियों की साधनाएं भागवतपुराण में उल्लिखित ऋषभ और उनकी साधनाओं से तुलनीय हैं। नि:सन्देह यह वातरशना श्रमण ऋषि एक ही समप्रदाय के वाचक हैं।
केशी का अर्थ केशधारी होता है, जिसका अर्थ सायणाचार्य ने केश स्थानीय रश्मियों को धारण करने वाले दिया है और उससे सूर्य का अर्थ निकला है। किन्तु उसकी कोई सार्थकता व संगति वातरशना मुनियों के साथ नहीं बैठती जिनकी साधनाओं का उक्त सूत्र में वर्णन है। केशी स्पष्टत: वातरशना मुनियों के अधिनायक ही हो सकते हैं जिनकी साधना में मलधारण, मौनवृत्ति और उन्मादभाव का विशेष निरूपण हुआ है। इसकी भागवतपुराण में ऋषभ के वर्णन से तुलना की