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54 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति अग्नि में वह स्वेच्छा से भस्म हो गये।
भागवतपुराण में यह भी कहा गया है कि ऋषभदेव के इस चरित्र को सुनकर कोंक, बैंक व कुटक का राजा अर्हन कलयुग में अपनी इच्छा से उसी धर्म का सम्प्रवर्तन करेगा। इस वर्णन से नि:सन्देह यह निष्कर्ष निकलता है कि यह ऋषभ और कोई नहीं आदि तीर्थंकर ही हैं तथा अर्हन राजा द्वारा सम्प्रवर्तित धर्म का आशय जैन धर्म से ही है।88 । __भागवतपुराण में अन्यत्र कहा गया है कि यज्ञ में परम ऋषियों द्वारा प्रसन्न किये जाने पर, विष्णुदत्त परीक्षित स्वयं ही भगवान विष्णु महाराज नाभि का प्रिय करने के लिए महारानी मरुदेवी के गर्भ में आये। उन्होंने इस पवित्र शरीर का अवतार वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्म को प्रकट करने की इच्छा से किया।89
भागवतपुराण के इस कथन में दो उल्लेखनीय बाते हैं। प्रथम-ऋषभदेव की पूज्यता के सम्बन्ध में जैन और हिन्दू धर्म में कोई मतभेद नहीं है। जैसे वह जैनियों के आदि तीर्थंकर हैं वैसे ही हिन्दुओं के लिए साक्षात भगवान विष्णु के अवतार हैं। द्वितीय, प्राचीनता में यह अवतार राम और कृष्ण के अवतारों से भी पूर्व का माना गया है। इस अवतार का जो हेतु भागवतपुराण में बताया गया है उससे श्रमण धर्म की परम्परा स्वतः ही ऋग्वेद से जुड़ जाती है जिसमें ऋषभावतार का हेतु श्रमण ऋषियों के धर्म को प्रकट करना बताया गया है।
ऋग्वेद में उल्लेख है कि
मुनयो वातरशना: पिशंगा वसने भला। वातस्यानु प्राजिं यन्ति यद्देवासो अविक्षत।। उन्मदिता मोनेयेन वातां आतस्थिमा वयम्। शरीरेदस्माकं यूयं मर्तासो अभि पश्यथ।।
यहां वातरशना शब्द महत्वपूर्ण हैं। डा. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार उसका वही अर्थ है जो दिगम्बर का है। वायु जिनकी मेखला है अथवा दिशाएं जिनका वस्त्र है। दोनों शब्द एक ही भाव के सूचक हैं। इसी प्रकरण में मौनेय शब्द भी प्रयुक्त हुआ है। वातरशना मुनि मौनेय की अनुभूति में कहता हैमुनिभाव से प्रमुदित होकर हम वायु में स्थिर हो गये हैं। मो तुम हमारा शरीर मात्र देखते हो।
विद्वानों द्वारा नाना प्रयत्न करने पर भी अभी तक वेदों का नि:सन्देह रूप से अर्थ बैठना सम्भव नहीं हो सका है। तथापि सायणभाष्य की सहायता से डा. हीरालाल जैन उक्त ऋचाओं का अर्थ इस प्रकार करते हैं-अतीन्द्रियार्थदर्शी वातरशना मुनि मल धारण करते हैं जिससे वह पिंगल वर्ण दिखाई देते हैं। जब वह