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52 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
का दु:खनिवृत्ति व उपशम में। इस मत का प्रत्याख्यान नहीं किया जा सकता कि सैन्धवसभ्यता ने अपनी विरासत में अध्यात्म की अक्षय निधि छोड़ी जिसकी छाप श्रमण परम्परा पर सुस्पष्ट थी तथा जिससे अनेक महत्वपूर्ण तथ्य परवर्ती वैदिक धर्म ने ग्रहण किये जो इस प्रकार है-पशुपति, योगीश्वर तथा कदाचित नटराज के रूप में शिव की पूजा, मातृ शक्ति की पूजा, अश्वत्थपूजा, वृषभादि अनेक पशुओं का देव सम्बन्ध, लिंगपूजा, जल की पवित्रता, मूर्तिपूजा और योगाभ्यास जो कि आसन और मुद्रा के अंकन से संकेतित होता है। श्रमणों का योगविद्या से अनन्य परिचय होने के कारण ही विद्वान इसका अन्वय सैन्धव संस्कृति से करते हैं। यह श्रमण ब्राह्मणेतर तथा वैदिक संस्कृति से अनभ्यंतर थे तथा उनकी निवृत्तिपरक गतिविधियां तथा क्लेशलक्षण, आर्यों के सुविदित जीवन शैली से नितान्त अपरिचित तथा यौगिक क्रियाएं आप्तकाम दृष्टि के प्रतिकूल थीं। यही कारण है कि श्रमणों को केशधारी, मैले, गेरूए कपड़े पहने, हवा में उड़ते, विषभक्षण करते देखा शृक्-संहिता का संहिताकार विस्मित हो सोचने लगा कि वह आवेश अथवा उन्माद में हैं। उल्लेखनीय है कि ऋग्वेद तथा परवर्ती वैदिक साहित्य में श्रमण के पर्याय के रूप में मुनि संज्ञा को भी अभिहित किया गया है। __श्रमण और ब्राह्मण परस्पर प्रतिद्वन्द्वी व विरोधी थे। उदाहरण के लिए एक वैदिक ग्रन्थ में इन्हें इन्द्रदेवता का शत्रु कहा गया है। अन्य में तुरकावषेय मुनि की चर्चा है जो वेदाध्ययन और यज्ञ के विरोधी थे। कवष ऐलूष नामक मुनि को वैदिक यज्ञ से अब्राह्मण होने के कारण तिरस्कृत व बहिष्कृत होना पड़ा था। ईसा पूर्व चतुर्थ शताब्दी में यूनानियों ने भी इनके विभेद का उल्लेख किया है।2 महाभाष्यकार पतंजलि ने इनका शाश्वत विरोध मार्जार व मूषकवत बताया है। इसके विपरीत ऐसे भी अनेक उदाहरण हैं जिनमें श्रमण और ब्राह्मण को समान समझा गया है तथा मान, दान और दक्षिणा की पात्रता की दृष्टि से इन दोनों के साथ साथ उल्लेख किये गये हैं।
ब्राह्मणों तथा श्रमणों को भोजन कराना पुण्य कार्य समझा जाता था। स्थानांगसूत्र में श्रमण-माहन (बाह्मण) की पर्युपासना का फल बताते हुए लाभकारी कार्यकारण श्रृंखला बताई गयी है जो इस प्रकार है-धर्म का फल श्रवण, श्रवण का फल ज्ञान, ज्ञान का फल विज्ञान तथा विज्ञान का फल प्रत्याख्यान। प्रत्याख्यान का फल संयम, संयम का फल कर्मनिरोध। कर्मनिरोध (अनाश्रव) का फल तप। तप का फल व्यवदान (निर्जरा)। व्यवदान का फल अक्रिया अर्थात् मन, वचन और शरीर की प्रवृत्ति का पूर्ण निरोध। अक्रिया का फल है निर्वाण। निर्वाण का फल है सिद्धगति गमन।
महावीर का युग ऐसे वैरागियों से सुपरिचित था जिन्होंने सांसारिक जीवन को त्याग कर गृहविहीन जीवन को अपना लिया था तथा ज्ञान की खोज में भ्रमण कर