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आगमकालीन धार्मिक एवं दार्शनिक विचार • 51
हुआ। पीछे इस आदर्श का बौद्धों और जैनों ने अनुसरण अनुकरण किया । किन्तु क्या ब्राह्मणों के धर्म में वैराग्य और संन्यास के सुविकसित विचार विद्यमान थे ? क्या उनमें चतुराश्रम्य सिद्धान्त व्यवस्थित हो चुका था ? विवेचना का विषय है।
वस्तुतः वैदिक संहिताओं में तथा ब्राह्मणों में आश्रम शब्द की ही कहीं उपलब्धि नहीं होती। सायण ने ऐतरेय ब्राह्मण की टीका में अवश्य ही चतुराश्रम्य दीख पड़ने की बात कही है। 9 इसे ही आधार बनाकर कणे ने वैदिक साहित्य में चार आश्रमों का अस्फुट उल्लेख होने की बात कही है। " किन्तु विद्वानों का दूसरा वर्ग जिसमें एस. दत्त", जी. सी. पाण्डे तथा जी. एस. पी. मिश्र सम्मिलित हैं, जैकोबी के इस विचार से असहमत हैं तथा पर्याप्त प्रमाणों के आधार पर उनने सिद्ध किया है कि निवृत्ति के साथ परिव्रज्या भी ब्राह्मणों ने श्रमण अनुकरण पर स्वीकार की थी। इनके अनुसार श्रामण्य की प्राचीन परम्परा को ही छठी शताब्दी के वैदिक और अवैदिक भिक्षु सम्प्रदायों के मूल में मानना चाहिए ।
अपने सिद्धान्त की पुष्टि में यह युक्ति देते हैं कि ऐतरेय ब्राह्मण की सायण की व्याख्या विवादास्पद है। विशेषकर सायण का मल को गृहस्थ का द्योतक मानना । अजिन् को ब्रह्मचर्य, श्मश्रु को वानप्रस्थ और तप को संन्यास का प्रतीक समझ लेना । वस्तुत: इस श्लोक में ब्रह्मचारियों, तपस्वियों और मुनियों को इंगित करने वाली ब्राह्मणों की प्रवृत्तिवादी संस्कृति है 104
श्रमण संस्कृति की प्राचीनता, प्रामाणिकता और आर्येतर तत्व
जैन और बौद्ध साहित्य में इतस्ततः श्रमणों का उल्लेख हुआ है। इस बात के स्पष्ट प्रमाण हैं कि यह मुनि और श्रमण वैदिक समाज के बहिर्भूत थे तथा एक अि विकसित और उदात्त निवृत्तिपरक आध्यात्मिक विचाराधारा के प्रतिनिधि थे। इस श्रमण विचारधारा की प्रतिद्वंद्विता के समक्ष थी वैदिक, ब्राह्मण धर्म की प्रवृत्तिवादी और देववादी विचारधारा। जहां श्रमणों के लिए प्रवृत्तिमूलक कर्म गर्हित थे तथा बन्धनों के हेतु थे तथा ब्रह्मचर्य, तपस्या योग, तप और काय क्लेश आत्मोत्कर्ष के आदर्श साधन वहीं ब्राह्मणधर्म में प्रवृत्तिमूलक, लौकिक सुख ही काम्य था और यज्ञात्मक कर्म आदर्श साधन । " ब्राह्मण परम्परा जहां पुत्र को ही विमुक्ति का विशुद्ध साधन मानती थी वहां श्रमण परम्परा वैराग्यमय ब्रह्मचर्य को । मैगस्थनीज ने भारतीय साधुओं को श्रमण और ब्राह्मण दो वर्गों में बांटा था। उसके विवरण से स्पष्ट है कि उसने ब्राह्मणों को ब्रह्मचारी और गृहस्थ ही देखा । जबकि श्रमनोई श्रमणवर्ग में दुलोबियोई आते थे जो कि न नगरों मे रहते थे, न घरों में, वल्कल पहनते थे, अंजलि से पानी पीते थे, न विवाह करते थे न सन्तानोत्पादन | संक्षेप में, ब्राह्मण परम्परा का पुरुषार्थ आप्तकामता अथवा आनन्द में था जबकि श्रमणों