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जैन आगम साहित्य : ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन • 37
13. जैनसूत्रज, भा० 1,270, पादटिप्पण 1। 14. सम्भवत: इस समय आगम साहित्य को पुस्तकारूढ़ करने के सम्बन्ध में ही विचार किया
गया परन्तु हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में लिखा है कि नागार्जुन और स्कंदिल आदि आचार्यों ने आगम को पुस्तक रूप में निबद्ध किया। सामान्यत: देवर्द्धि ही 'पुत्थे आगमलिहिओ' के रूप में प्रसिद्ध हैं-मुनि पुण्यविजय, भारतीय श्रमण परम्परा, पृ० 16, भगवतीसूत्र, 20/8। श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमणेन श्रीवीराद् अशीत्यधिक नवशतकवर्षे जातेन द्वादश वर्षीय दुर्भिक्षवशात् बहुतरसाधुव्यापतौ च जातायां - भविष्यद् भव्यलोकोपकाराय श्रुतभक्तये च श्रीसंघाग्रहात न्यूनाधिकान् त्रुटिताअत्रुटितान् आगमालापकान् अनुक्रमेण स्वमत्था संकलय्य पुस्तकारूढ़ः कृताः। ततो मूलतो गणधरभाषितानामा तत्तसंकलनान्तरं सर्वेषामपि
आगमानांकर्ता श्री देवर्द्धिगणि क्षमाश्रमण एव जात:। 16. मुनि नथमल, जैन दर्शन मनन और मीमांसा, पृ० 88-891 17. मुनि कल्याणविजय, वीर निर्वाण और जैन काल गणना, पृ० 120 इत्यादि। 18. दुर्भिक्षातिक्रमे सुमिक्षाप्रवृतौद्वयोः संघयोमेलापको अभवत्। तद्यथा एको वलभ्यां, एको
मथुरायां, तत्र च सूत्रार्थ संघटेन परस्पर वाचनाभेदो जातः। ज्योतिषकरण्ड की टीका, पृ०
411 19. तत: सुभिक्षे संज्ञाते संघस्य मेल को अभवत्। वलभ्यां मथुरायां च सूत्रार्थ संघटना कृते
वल्भ्यां संगते संघे देवर्द्धिगणिरग्रणी:। मधुरायां संगते स्कंदिलाचार्यों अग्रणीरभूत। ततश्च वाचनाभेदस्तत्र जात: क्वचित् क्वाचित। विस्मृत स्मरणे भेदो जातु स्यादुमयोरपि।। लोक
प्रकाश। 20. कथावली, 2981 21. जैकोबी, जैनसूत्रज, भाग-1, पृ० 270 पादटिप्पण -2। 22. मुनि कल्याण विजय, वीर निर्वाण और जैन काल गणना, पृ० 110-111 से उद्धृत। 23. तदैव, पृ० 1161 24. वालभ्यं संघकज्जे उज्जभिअं जुगपहाण तुल्लेहिं गघंव्ववाइवेयालसंतिसूरीहिं बलहीए। 21
यह गाथा एक दुषमा संघ स्त्रोत्रयंत्र की प्रति के हाशिये पर लिखी हुई है। द्र० वही, पृ०
1171 25. प्रभावक चरित, पृ० 133-37 26. जिनवचनं च दुषमाकालवशादुच्छिन्न प्रायमिति मत्वा भगवम्दिर्नागार्जुन-स्कन्दिलाचार्य
प्रभृतिभिः पुस्तकेषुन्यस्तम - योगशास्त्र 3, पृ० 107। 27. जिनदास महत्तर कृत नन्दीचूर्णि, पृ० 8।। 28. यो यत्स्मरति स तत्कथयतित्थेव कालिकश्रुतं पूर्वगतं च किंचिदनुसन्धाया घटित। द्र०
नन्दीस्थविरावली, गाथा 331 29. दृ० पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, जैन साहित्य का इतिहास पूर्व पीठिका, पृ० 508-91 30. जैकोबी, जैनसूत्रज, जिल्द 22, प्रस्तावना। 31. सा च तत्कालयुगप्रधानानांस्कन्दिलाचार्याणामभिमता तदैव चार्थत: शिष्यबुद्धि प्रापितेति
तद्नुयोग: तेषामाचार्याणं सम्बन्धीति व्यपदिश्यते। अपरे पुनरेवमाहू: न किमपि श्रुतं दुर्भिक्षवशात् अनेशत् किन्तु तावदेव तत्काले श्रुतमनुवर्ततेस्म। केवलमन्ये प्रधानाये अनुयोगधरा ते सर्वेअपि दुर्भिक्षकालकवलीकृता: एक एव स्कन्दिलसूरयो विद्यन्तेस्म। ततस्तै दुर्भिक्षापगमे मथुरापुरी पुनरनुयोग: प्रवर्तित: इति वाचना माथुरीति व्यपदिश्यते, अनुयोगश्च तेषा माचार्याणमिति। -नन्दी स्थविरावली, गाथा 33 टीका।