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आगमकालीन धार्मिक एवं दार्शनिक विचार • 47
सर्वजीव अपने आसपास छहों दिशाओं में रहते हए कर्म पुदगलों को ग्रहण करते हैं और आत्मा के सर्वप्रदेशों के साथ सर्वकर्मों का सर्व प्रकार से बन्धन होता है।" जैन धर्म की मान्यता है कि कर्म के दुष्प्रभाव के अन्तर्गत आत्मा जो कि विशुद्ध एवं असीमित क्षमताओं वाली होती है, अपने को सीमित अनुभव करती है। आत्मा को कर्म के इस विपरीत प्रभाव से मुक्त करना मुक्ति का अनिवार्य अनुबन्ध है, मुक्ति या निर्वाण जीवन का चरमोद्देश्य है।
जीव दो प्रकार के कर्मों से बंधता है-भौतिक तथा मानसिक। पहले प्रकार के कर्म का अर्थ है कि द्रव्य का आत्मा में प्रवेश हो गया है। दूसरे प्रकार के अन्तर्गत इच्छा तथा अनिच्छा जैसी चेतन मानसिक क्रियाओं का समावेश होता है। इन दो प्रकार के कर्मों को एक-दूसरे के लिए विशेष रूप से उत्तरदायी माना जाता है। जैनों की दृढ़ मान्यता है कि जीव अपने को कर्म के बन्धन से मुक्त कर सकता है। परन्तु चूंकि यह माना जाता है कि विकारों के कारण ही बन्धन है, इसलिए कहा गया है कि यदि बिना विकारों के कर्म किये जाएं तो वह व्यक्ति को नहीं बांधते। यह स्थिति गीता के निष्काम कर्म योग के समान है। ___ इस जगत में जो भी प्राणी हैं, वह अपने संचित कर्मों से ही संसार भ्रमण करते हैं और स्वकर्मों के अनुसार ही भिन्न-भिन्न योनियों में जन्म लेते हैं। फल भोगे बिना उपार्जित कर्मों से प्राणी का छुटकारा नहीं होता।20 कृत कर्म इस जन्म में अथवा परजन्म में भी फल देते हैं। संचित कर्म एक जन्म में अथवा सहस्रों जन्मों में भी फल देते हैं। कर्मवश जीव बड़े से बड़ा दुख भोगता है और फिर आर्तध्यान, शोक विलाप आदि करके नये कर्मों को बांधता है। इस प्रकार कर्म से कर्म की परम्परा चलती है। बंधे हुए कर्म का फल दुर्निवार है, उसे मिटाना अशक्य है। सर्वप्राणी अपने कर्मों के अनुसार ही पृथक पृथक योनियों में अवस्थित हैं। कर्मों की अधीनता के कारण अव्यक्त दुःख से दुखित प्राणी जन्म, जरा और मरण से सदा भयभीत रहते हुए संसार चक्र में भटकते रहते हैं।22 जैनों का तो वस्तुत: यह विश्वास था कि द्रव्य के चारों तत्व धर्म, अधर्म, आकाश और पुद्गल में भी
आत्मा विद्यमान है। आत्मा सर्वव्यापी होने के कारण कोई भी प्रमादपूर्ण क्रिया हिंसामय कर्म में बदल जाती है। लोक या परलोक में कर्मों के फल स्वयं ही भोगने पड़ते हैं। फल भोगे बिना कर्मों से छुटकारा नहीं हो सकता है।24 जैसे कृत कर्म हैं वैसा ही उनका परिणाम है। जिन कर्मों से बंधा जीव संसार में परिभ्रमण करता है वह संख्या में आठ हैं-(1) ज्ञानावरणीय, (2) दर्शनावरणीय, (3) वेदनीय, (4) मोहनीय, (5) आयु, (6) नाम, (7) गोत्र और (8) अन्तराय। राग और द्वेष यह कर्म के बीज हैं। कर्म मोह से उत्पन्न होता है, ऐसा ज्ञानियों का कथन है। कर्म जनम-मरण का मूल है और जनम-मरण दु:ख की परम्परा का कारण है। कर्म का मूल हिंसा है। जिस प्रकार मूल सूख जाने पर सींचने पर भी