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आगमकालीन धार्मिक एवं दार्शनिक विचार • 45
भारतीय धर्म परम्पराओं में जैन एवं बौद्ध धर्म परम्पराओं को छोड़कर प्राय: सभी धर्म परम्पराएं ईश्वर को ही सर्वोपरि शक्ति एवं सृष्टियन्त्र का संचालक मानती हैं। इसलिए वह ईश्वरवादी धर्म परम्पराएं कहलाती हैं।
भारतीय धर्म परम्परा में जैन धर्म जीव अथवा आत्मा को ही सर्वशक्तिसम्पन्न सत्ता मानता है। इस धर्म में ईश्वर कोई विलक्षण या भिन्न तत्व नहीं, जो सृष्टि का नियामक अथवा संचालक हो । परम विकसित शुद्ध निर्मल आत्मा ही मनुष्य की आध्यात्मिक गवेषणा का विषय है। सर्व- द्वन्द्व - मुक्त इच्छा, द्वेषशून्य आत्मा को ही परमात्मा के रूप में ग्रहण किया जा सकता है। जहां ईश्वरवादी धर्मों में आत्मा को ईश्वर का अनुगामी, उपासक एवं सेवक माना है, वहां जैन धर्म में आत्मा को ही परमात्मा बनने का अधिकारी माना गया है। जहां ईश्वरवादी धर्मों में आत्मा की कृतार्थता परमात्मा के भक्त बने रहने में ही है वहां जैन धर्म में आत्मा को ही परम तत्व स्वीकार किया गया है, कर्म युक्त होने पर इसका बन्धन है, कर्ममुक्त होने पर इसे अपना शुद्ध स्वरूप प्राप्त होता है। भारतीय धर्म परम्पराओं में दृष्टि एवं विश्वास का यह एक मौलिक भेद उन्हें दो धाराओं में विभक्त करता है - 1. ईश्वरवादी अर्थात् परमात्मावादी एवं 2. अनीश्वरवादी अर्थात् आत्मावादी। यहां अनीश्वरवाद से तात्पर्य ईश्वर की सत्ता में अविश्वास या उस परमतत्व की अस्वीकृति से नहीं है अपितु ईश्वर को सृष्टितन्त्र का संचालक मानने से है।
आत्मवादी धर्म
जैन धर्म की मुख्य पृष्ठभूमि आत्मवाद ही है। जैन धर्म का यह दृढ़ विश्वास रहा है कि आत्मा ही सुख-दुःख करने वाला है। शुभ मार्ग में प्रवृत्त आत्मा स्वयं का श्रेष्ठतम मित्र है, अशुभ मार्ग में प्रवृत्त आत्मा स्वयं का निकटतम शत्रु है। जो कुछ है वह आत्मा ही है। वह निर्विकार, निरंजन, सिद्धस्वरूप है।
आत्मा अनन्तज्ञान, अनन्तसुख एवं अनन्त शक्ति सामर्थ्य का पुंज है। सुखदुःख का कर्ता भी यही है, भोक्ता भी यही है और उनसे मुक्त होने का प्रयत्न करने वाला भी यही है। आत्म ज्ञान ही समस्त ज्ञान की कुंजी है, अतः सर्वप्रथम आत्मस्वरूप का बोध प्राप्त करना चाहिए। यह आत्मा औपपातिक है, कर्मानुसार पुनर्जन्म ग्रहण करती है। आत्मा के पुनर्जन्म सम्बन्धी सिद्धान्त को स्वीकार करने वाला ही वस्तुत: आत्मवादी, लोकवादी, कर्मवादी एवं क्रियावादी है ।" जो अपनी आत्मा का अपलाप, अविश्वास करता है, वह लोक अन्य जीव समूह का भी अपलाप करता है।' यह आत्मा अव्यय - अविनाशी, अवस्थित व एक रूप है।' वह शाश्वत भी है अशाश्वत भी । द्रव्य दृष्टि से शाश्वत तथा भावदृष्टि से अशाश्वत