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अध्याय 2
आगमकालीन धार्मिक एवं
दार्शनिक विचार
जैन धर्म शब्द अर्वाचीन है। भगवान महावीर के समय इसका बोधक निर्ग्रन्थ धर्म था। निर्ग्रन्थ धर्म या निर्ग्रन्थ प्रवचन' महावीर कालीन शब्द है। कहीं-कहीं इसे आर्यधर्म भी कहा गया है। भगवान महावीर से पूर्व भगवान पार्श्वनाथ के समय में इसे श्रमणधर्म' कहा जाता था। भगवान पार्श्वनाथ से पहले भगवान अरिष्टनेमि के समय में इसे आहत धर्म पुकारा जाता था। अरिष्टनेमि को अनेक स्थानों पर अर्हत अरिष्टनेमि के नाम से पुकारा गया है। आदि तीर्थंकर के युग में इस परम्परा का क्या नाम प्रचलित था, यह हम विश्वसनीय आधार पर नहीं कह सकते किन्तु यह कह सकते हैं कि इस धर्म के, इस परम्परा और संस्कृति के, मूलसिद्धान्त बीज रूप में वही रहे हैं जो आज हैं और यह है-आत्मवाद तथा आत्म कर्तृत्ववाद। इस आत्मवाद की उर्वर भूमि पर इस धर्म परम्परा का कल्पवृक्ष फलता फूलता रहा है।
काल गणना से परे और इतिहास की आंखों से आगे सदर अतीत, अनन्त अतीत, अनादि प्राक्काल में भी इन विचारों की स्फुरणा, इन विश्वासों की प्रतिध्वनि मानव मन में गूंजती रही है, मानव की आस्था इस मार्ग पर दृढ़ चरण रखती हुई अपने ध्येय को पाती रही है। __आत्मा एवं परमात्मा, इन तत्वों में विश्वास को विविध धर्मों में स्थित भेद का एक स्थूल आधार बनाया जा सकता है। इस आधार को दृष्टिगत रखकर यदि धर्म परम्पराओं का विववेचन एवं वर्गीकरण करें तो वह दो अलग-अलग भूमिकाओं पर खड़ी दिखाई देंगी। कुछ धर्म परम्पराएं परमात्मावादी हैं और कुछ आत्मवादी। परमात्मवादी धर्म परम्परा को सीधी भाषा में ईश्वरवादी धर्म दृष्टि भी कह सकते हैं। ईश्वर, भगवान, ब्रह्म चाहे कुछ भी नाम हो किन्तु उस वर्ग में सर्वोपरि सत्ता वही है। वही सर्वतन्त्र, स्वतन्त्र शक्ति है। कर्ता, हर्ता और भर्ता वही है। वह अपनी इच्छानुसार संसार यन्त्र को चलाता है। आत्मा को वही शुभाशुभ की ओर प्रेरित करता ही जाव का यहा स्वतन्त्र अस्तित्व कुछ नहीं है, जो कुछ है वह ईश्वर है।