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जैन आगम साहित्य : ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन • 31
विन्टरनित्स के अनुसार दोनों श्रुतों के कर्ता एक नहीं हैं तथा द्वितीय श्रुतस्कन्ध से प्रथम, प्राचीन और मौलिक है। प्रथम श्रुतस्कन्ध गणधर कृत है और द्वितीय स्थविर कृत । द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रक्षिप्त है। 160
द्वितीय श्रुतस्कन्ध
प्रथम अध्ययन पौंडरीक है। इसमें बताया गया है कि क्रियावादी, अक्रियावादी विनय वादी और अज्ञानवादी मुक्ति को प्राप्त करने का संकल्प करते हैं, परन्तु वे संसार से विरक्त होकर संयम का पालन नहीं करते, काम भागों में लिप्त रहते हैं । अतः वे विषयभोग से छटकारा नहीं पा सकते। पुण्डरीक श्वेतकमल है जो सुसंयमी साधक का प्रतीक है। जो साधक आरम्भ - परिग्रह से मुक्त हैं, विषय कषाय का परित्याग कर चुका है और काम भोगों को संसार का कारण समझता है, वही शुद्ध संयम का पालन करके मुक्ति को प्राप्त करता है।
दूसरा अध्ययन क्रिया स्थान है। जहां इच्छा है वहीं कषाय है, जहां कषाय है वहीं संसार है। साधक को वीतराग भाव प्राप्त करना चाहिए। कषायभाव ही मोक्ष
है।
तीसरा अध्ययन आहार परिज्ञा है। इसमें शुद्ध एषणीय आहार ग्रहण करने का वर्णन किया गया है।
चौथा प्रत्याख्यान परिज्ञा अध्ययन है। इसमें बताया गया है कि जब तक व्यक्ति किसी क्रिया का त्याग नहीं करता तब तक उसे सब क्रियाएं लगती हैं। अतः उसे क्रिया से होने वाले कर्म बन्ध एवं संसार परिभ्रमण का ज्ञान करके सांसारिक क्रियाओं का त्याग करना चाहिए।
पांचवां आचार-अनाचार श्रुत अध्ययन है। इसमें शुद्ध आचार और इसमें लगने वाले अनाचारों दोनों का वर्णन है। साधक को अनाचारों से रहित शुद्धनिर्दोष आचार का पालन करना चाहिए।
छठा आर्द्रकीय अध्ययन है। इसमें अन्य दार्शनिकों एवं अन्य धर्म आचार्यों तथा साधुओं के साथ आर्द्रक कुमार की विचार चर्चा हुई है।
सातवें नालन्दीय अध्ययन में श्रावक - गृहस्थ के आचार का वर्णन है। इसमें गृहस्थ जीवन का आदर्श बताया गया है। प्रो० विन्टरनित्स का कहना है कि श्रुत स्कन्धों में से प्रथम श्रुतस्कन्ध प्राचीन है और दूसरा श्रुतस्कन्ध केवल एक परिशिष्ट है जो बाद में जोड़ दिया गया है। यह सम्भव है कि प्रथम श्रुतस्कन्ध एक ही व्यक्ति के द्वारा रचा गया हो। उससे भी अधिक सम्भव यह है कि किसी संग्राहक ने एक पुस्तक का रूप देने के लिए विभिन्न पद्यों और उपदेशों को एक प्रकरण रूप में संयुक्त कर दिया हो। इसके विपरीत दूसरा श्रुतस्कन्ध गद्य में लिखा गया