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जैन आगम साहित्य : ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन • 25
दुःख की चेतना विद्यमान है। किसी तरह के शस्त्र द्वारा उनका वध नहीं करना चाहिए, उन्हें ताप - परिताप नहीं देना चाहिए, उन्हें बन्धन में नही बांधना चाहिए | 137
द्वितीय अध्ययन का नाम लोकविजय है। यह छः उद्देशकों में विभक्त है। इसमें बताया गया है कि किस प्रकार से जीव संसार में आबद्ध होता है। इसके छः उद्देश्यों में क्रमश: यह भाव बताये गये हैं- 1. स्वजन स्नेहियों के साथ निहित रागभाव एवं आसक्ति का परित्याग करना, 2. संयम साधना में प्रविष्ट होने वाले साधक को शिथिलता का परित्याग करना, 3. अभिमान और धन-सम्पत्ति में सार दृष्टि नहीं रखना, 4. लोक के आश्रय से संयम का निर्वाह होने पर भी लोक में ममत्व भाव नहीं रखना। लोक दो प्रकार का है- 1. द्रव्य लोक और 2. भाव लोक । जिस क्षेत्र में मनुष्य, पशु, पक्षी, देव, नारक रहते हैं वह द्रव्य लोक है। कषायों को भावलोक कहते हैं। विषय कषाय पर विजय पाने वाला साधक ही सच्चा विजेता है। तृतीय अध्ययन का नाम शीतोष्णीय है। जिसका अर्थ है अनुकूल और प्रतिकूल परिषह । स्त्री और सत्कार परिषह को शीत और शेष बीस परिषहों को उष्ण कहा है। साधना के बाद में कभी अनुकूल परिषह उत्पन्न होते हैं तो कभी प्रतिकूल परिषह । साधु को इन्हें समत्वपूर्वक सहना चाहिए । परिषहों के उत्पन्न होने के बाद साधक साधना क्षेत्र से पलायन न करे अपितु धैर्यपूर्वक सहते हुए संयम का पालन करे। यह चार उद्देशकों में विभक्त है। इसमें साधक को सदा जागते रहने का उपदेश दिया है। 38 महावीर का घोष है कि सुषुप्त साधक मुनि नहीं है क्योंकि मुनि सदा सर्वदा जाग्रत रहता है। 139 वह कभी भी भावनिद्रा में नहीं रहता। प्रमाद और आलस्य में निमज्जित नहीं होता।
चतुर्थ अध्ययन का नाम सम्यकत्व है। इसके चार उद्देशक हैं। सम्यकत्व का अर्थ है-श्रद्धा, निष्ठा और विश्वास । प्रश्न उठता है कि साधक किस पर श्रद्धा करे । इस अध्ययन में बताया गया है कि अतीत, अनागत एवं वर्तमान में होने वाले समस्त तीर्थंकरों का एक ही उपदेश रहा है कि सर्वप्राण, सर्वभूत, सर्वजीव और सर्वसत्व की हिंसा मत करो, उन्हें पीड़ा एवं सन्ताप - परिताप मत दो। यही धर्म शुद्ध है, नित्य है, ध्रुव है, शाश्वत है। 140
पंचम अध्याय लोकसार है। वस्तुतः लोक में सारभूत तत्व है तो केवल धर्म ही है। धर्म का सार ज्ञान है। ज्ञान का सार संयम है और संयम का सार निर्वाण है। प्रस्तुत अध्ययन के छ: उद्देशकों में इसी बात का विस्तृत विवेचन है।
षष्टम अध्ययन का नाम धूत है। इसके पांच उद्देशक हैं। धूत का अर्थ है - वस्तु पर लगे हुए मैल को साफ करके वस्तु को साफ रखना । प्रस्तुत अध्ययन में तप संयम के द्वारा आत्मा पर लगे कर्म मल को दूर करके आत्मा को शुद्ध करने की विधि बतायी है। छठे अध्ययन के चौथे उद्देशक में इस प्रकार से शिष्यों को