________________
24 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति होना चाहिए, कैसे भोजन करना चाहिए और कैसे बोलना चाहिए आदि का इसमें विवरण है।132 सचेलक परम्परा के समवायांग सूत्र में बताया गया है कि निर्ग्रन्थ सम्बन्धी आचार, गोचर, विनय, वैनयिक, स्थान, गमन, चक्रमण, प्रमाण, योगयोजना, भाषा-समिति, गप्ति, शैया, उपधि, आहार, पानी सम्बन्धी उद्गम, उत्पाद, एषणा विशुद्धि एवं शुद्धा-शुद्ध ग्रहण, व्रत, नियम, तप, उपधान, ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चरित्राचार, तपाचार तथा वीर्याचार विषयक सुप्रशस्त विवेचन आचारांग में उपलब्ध हैं।
अचेलक परम्परा के राजवार्तिक, धवला, जयधवला, गोमट्टसार, अंगपण्णत्ति आदि ग्रन्थों में बताया गया है कि आचारांग में मनशुद्धि, वचनशुद्धि, कायशुद्धि तथा ईर्या शुद्धि का विधान है। इसमें अठारह हजार पद थे। वर्तमान श्वेताम्बर आगम में दो श्रुत स्कन्ध हैं। सभी सर्वसम्मति से स्वीकार करते हैं कि सुधर्मास्वामी जो कि महावीर के पांचवें गणधर थे, प्रथम श्रुतस्कन्ध के कर्ता हैं। द्वितीय श्रुतस्कन्ध के प्रणेता के विषय में अनेक मत हैं। आचारांगसूत्र की नियुक्ति में भद्रबाहुस्वामी कहते हैं कि आचारांग के कर्ता स्थविर थे। चूर्णिकार के अनुसार स्थविर का आशय यहां गणधर ही से लेना चाहिए। आचारांगवृत्ति के लेखक शीलाचार्य स्थविर का अर्थ चौदहपूर्वो के ज्ञाता से करते हैं।33
प्रथम श्रुतस्कन्ध
इसमें नौ अध्याय हैं जो अध्ययन कहलाते हैं। इस कारण यह नवब्रह्मचर्य कहलाता है किन्तु अब केवल इसमें आठ ही अध्ययन उपलब्ध हैं। महापरिण्णा नामक अध्याय अब लुप्त हो गया है।34 किन्तु शीलांक जैसे टीकाकार का कथन है कि मूल में केवल 7 ही अध्ययन थे जिनमें यतिजीवन का वर्णन था।।35 महापरिण्णा आठवां अध्ययन था क्योंकि महापरिण्णा का अपेक्षाकृत कम महत्व होने के कारण ही लोप हो गया है।।36 यह बम्मचेरिय या ब्रह्मचर्य अध्ययन कहलाता है। ब्रह्म का अर्थ है संयम और चर्या का अर्थ है आचरण करना। आगम साहित्य में अहिंसा
और समत्व भाव की साधना का उपदेश दिया गया है। इसके प्रथम अध्ययन का नाम शस्त्र-परिज्ञा है। इस अध्ययन में भगवान ने नि:शस्त्रीकरण का उपदेश दिया है। उन्होंने साधना पथ पर गतिशील साधक को द्रव्य और भाव तलवार आदि द्रव्य शस्त्रों के परित्याग की बात कही है। प्रथम अध्ययन के सात उद्देशक हैं। प्रथम उद्देशक में समुच्चय रूप से जीव हिंसा से विरत होने का उपदेश दिया है। शेष छ: उद्देशकों में पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, वनस्पति और त्रस काय के जीवों का परिज्ञान कराया है। साधक को यह बोध कराया गया है कि इन योनियों में वह स्वयं उत्पन्न होता आया है। जगत् के सभी जीवों में चेतना शक्ति विद्यमान है, सुख