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26 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
उद्दिष्ट करके बताया गया है कि जिस प्रकार पक्षी के बच्चे को उसकी माता दाने दे-दे कर बड़ा करती है उसी प्रकार ज्ञानी पुरुष अपने शिष्यों को दिन-रात अध्ययन कराते हैं। 141
सप्तम अध्ययन का नाम पहापरिज्ञा है। इसके सात उद्देशक हैं। आचार्य शीलांक का कहना है कि इसमें मोह के कारण उत्पन्न होने वाले परीषहों से बचने एवं जन्त्र-मन्त्र से बचकर रहने का उपदेश दिया गया है। वर्तमान में यह अध्ययन उपलब्ध ही नहीं है।
जैन श्रमणों का अन्य श्रमणों के साथ किस प्रकार का सम्बन्ध रहता था यह भी जानने योग्य है। आठवें अध्ययन के प्रथम उद्देशक में बताया गया है कि समनोज्ञ समान आचार विचार वाला भिक्षु असमनोज्ञ भिन्न आचार वाले को भोजन, पानी, वस्त्र, पात्र व कम्बल और पाद पुंछण न दे। इसके लिए उसे आमन्त्रित न करे, आदरपूर्वक सेवा न करे और सेवा न करावे । जैन श्रमणों में अन्य श्रमणों के संसर्ग से किसी प्रकार की आचार विचार विषयक शिथिलता न आ जाये, इसी दृष्टि से यह विधान है। 142
अष्टम अध्ययन विमोक्ष आठ उद्देशकों में विभक्त है। इसमें कल्प्य अकल्प्य वस्तुओं का वर्णन किया गया है और समान आचार वाले साधु की आहार पानी से सेवा करने और असमान आचरण वाले की सेवा न करने का उपदेश दिया गया है। इसमें साधक श्रमण के खानपान तथा वस्त्र पात्र के विषय में भी चर्चा है। इसमें उसके निवास स्थान का भी विचार किया गया है। साथ ही अचेलक यथा - ज्ञातृ श्रमण तथा उनकी मनोवृत्ति का निरूपण है । इस प्रकार एक वस्त्रधारी, द्विवस्त्रधारी तथा त्रिवस्त्रधारी भिक्षुओं और उनके कर्तव्यों पर प्रकाश डाला गया है। 143
नवम् अध्ययन के चार उद्देशक हैं, जिसमें एक भी सूत्र नहीं है। गाथाओं में भगवान महावीर की साधना का वर्णन है । 1 44 आचारांग के प्रथम श्रुत स्कन्ध में अचेलक अर्थात् वस्त्र रहित भिक्षु के विषय में तो उल्लेख आता है किन्तु करपात्री अर्थात् पाणिपात्री भिक्षु के सम्बन्ध में कोई स्पष्ट उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता । 1 45
द्वितीय श्रुतस्कन्ध
इसे अग्र तथा आचाराय भी कहा जाता है । 146 विन्टरनित्स के अनुसार द्वितीय श्रुतस्कन्ध में कुछ भाग संलग्न किये गये हैं अतः यह परवर्ती है। 147 इसमें चार चूलिकाएं और सोलह अध्ययन हैं। प्रथम अध्ययन के ग्यारह, द्वितीय के तीन, चतुर्थ से लेकर सप्तम् अध्ययन के दो-दो और शेष नौ अध्ययनों में एक-एक उद्देशक हैं। 48 यह पांच चूलिकाओं में विभक्त है जिसमें आचार प्रकल्प अथवा निशीथ नामक पंचम चूलिका आचारांग से अलग होकर स्वतन्त्र ग्रन्थ बन गई है।