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12 • जैन आगम : इतिहास एवं संस्कृति
या 993 वर्ष पश्चात् ईसा की 5वीं शताब्दी के मध्य में या छठी शताब्दी के आरम्भ में गुजरात की वलभी नगरी में पवित्र आगमों के संकलन तथा लेखने के लिए एक सम्मेलन हुआ। जिसके प्रधान देवर्द्धिक्षमा श्रमण थे। बारहवां अंग जिसमें पूर्वों के अवशिष्ट अंश संकलित थे, उस समय तक नष्ट हो चुका था। इसी कारण हम बारह अंग नहीं केवल ग्यारह अंग पाते हैं। अनुमान किया जाता है कि वर्तमान में पाये जाने वाले ग्यारह अंग वही हैं जिन्हें देवर्द्धि ने संकलित किया था | इस प्रकार हम देखते हैं कि स्वयं श्वेताम्बरों की जैन परम्परा के अनुसार उनके पवित्र आगमों की अधिकारिता ईसा की पांचवीं सदी से पूर्व नहीं जाती । " वर्तमान रूप में सूत्र वीर सम्वत् 980 लगभग 553 ई० में हमारे समक्ष आते हैं तथा नागार्जुन के अनुसार वीर सम्वत् 893 अथवा 466 ई० में जब चतुर्थ तथा अन्तिम जैन परिषद देवर्द्धिक्षमा श्रमण के नेतृत्व में वलभी में मिली तब सूत्रों का संकलन हो चुका था। 2 यह ठीक है कि वह मानते हैं कि वलभी सम्मेलन में जो आगम लिखे गये उनका आधार पाटलिपुत्र में संकलित आगम थे और वह आगम महावीर और उनके शिष्यों से सम्बद्ध थे।
कार्पेन्टियर को इस बात में सन्देह नहीं है कि आज भी प्रमुख आगम अपने आप को उसी रूप में उपस्थित करते हैं जिसमें पाटलिपुत्र वाचना में उन्हें निश्चित स्थिर किया गया था। कहा जाता है कि महावीर के शिष्य गणधरों ने मुख्य रूप से आर्य सुधर्मा ने महावीर स्वामी के वचनों को अंगों और उपांगों में निबद्ध किया। परम्परा के अनुसार कुछ विशेष ग्रन्थों को बाद के ग्रन्थकारों का भी कहा जाता है। उदाहरण के लिए चौथा उपांग आर्य श्यामार्य का बतलाया जाता है, जिसका समय महावीर निर्वाण से 376 या 386 वर्ष पश्चात् माना जाता है। चौथे छेद सूत्र पिण्डनिर्युक्ति और ओघनियुक्ति को भद्रबाहु की वीर निर्वाण की दूसरी शताब्दी और तीसरे मूलसूत्र को संयम्भव का, जिन्हें महावीर निर्वाण के पश्चात् चौथा युग प्रधान गिना जाता है, कहा जाता है। नन्दिसूत्र को महावीर निर्वाण की दसवीं शताब्दी में होने वाले वलभी सम्मेलन के प्रधान देवर्द्धि का कहा जाता है। दिगम्बर भी यह मत स्वीकार करते हैं कि महावीर के प्रथम गणधर चौदह पूर्वों और ग्यारह अंगों को जानते थे। किन्तु वे कहते हैं कि प्राचीन समय में केवल चौदह पूर्वों का ही ज्ञान लुप्त नहीं हुआ था, वरन् महावीर निर्वाण के 436 वर्ष पश्चात् ग्यारह अंगों के ज्ञाता अन्तिम व्यक्ति का देहान्त हुआ और इसके उत्तराधिकारी आचार्यों में क्रमश: अंगों का ज्ञान कम होता गया और अन्त में महावीर निर्वाण से 683 वर्ष पश्चात् अंगों का ज्ञान पूर्णतया नष्ट हो गया।
विन्टरनित्स का यह मत उपयुक्त प्रतीत होता है । उनके अनुसार यद्यपि स्वयं जैनों की परम्परा उनके आगमों के बहुत प्राचीन होने के पक्ष में नहीं है तथापि कमसे-कम उनके कुछ भागों को अपेक्षाकृत प्राचीन काल में मानने में और यह मानने