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जैन आगम साहित्य : ऐतिहासिक एवं सांस्कृतिक अध्ययन • 11
महावीर के निर्वाण के पश्चात् 683 वर्ष तक विक्रम सम्वत् की दूसरी शताब्दी पर्यन्त अंगज्ञान यद्यपि प्रचलित रहा, किन्तु दिन पर दिन क्षीण होता चला गया।
श्वेताम्बर परम्परा में पाटलिपुत्र के बाद दूसरी वाचना मथुरा में हुई और वीर निर्वाण से 980 वर्ष अथवा 993 वर्ष पश्चात् वलभी की तीसरी वाचना के समय संकलित ग्यारह अंगों को पुस्तकारूढ़ किया गया। किन्तु महत्वपूर्ण बारहवां अंग नष्ट हो गया। उसी के भेद चौदह पूर्व थे। उन्हीं के कारण बारहवें अंग का महत्व था। श्वेताम्बर परम्परा में तो ग्यारह अंगों की उत्पत्ति पूर्वो से ही मानी गयी है। अत: पूर्वो का महत्व निर्विवाद है। इस मत को आधार बनाकर आर०जी० भण्डारकर ने दिगम्बर परम्परा के कथन को विश्वसनीय मानते हए यह मत प्रकट किया था कि वीर निर्वाण के पश्चात् 683 वर्ष पर्यन्त 160 ई० में, जबकि अंगों के अन्तिम ज्ञाता आचार्य का स्वर्गवास हुआ, जैनों में कोई लिखित आगम नहीं था। सम्भवतया यह बात बारह अंगों के सम्बन्ध में कही गयी है क्योंकि उनका लेखनकार्य श्वेताम्बर मान्यतानुसार 980 या 993 वर्ष पश्चात् हुआ था।54
दुर्भिक्ष के कारण भद्रबाहु अपने अनुयायी समुदाय के साथ दक्षिण भारत के कर्नाटक प्रदेश में चले गये और स्थूलभद्र जो चौदह पूर्वो को जानने वाले अन्तिम व्यक्ति थे, मगध में रह जाने वाले संघ के प्रधान हो गये। भद्रबाहु की अनुपस्थिति के कारण यह प्रत्यक्ष था कि पवित्र सूत्रों का ज्ञान विस्मृति के गर्त में चला ज ता। इसलिए पाटलिपत्र में एक सम्मेलन का आयोजन किया गया। उसमें ग्यारह अंगों का संकलन हुआ और चौदह पूर्वो के अवशेषों को बारहवें अंग दृष्टिवाद के रूप में निबद्ध कर दिया गया। कालान्तर में यह बारहवां अंग भी लुप्त हो गया। उस समय भद्रबाहु के अनुयायी मगध में रह जाने वाले साधु सफेद वस्त्र पहनने के अभ्यस्त हो गये थे जबकि दक्षिण प्रवासी साधु महावीर के कठोर नियमों के अनुसार नग्न रहते थे। इस तरह दिगम्बरों और श्वेताम्बरों का महान संघ भेद हुआ। हाथीगुंफा अभिलेख से ज्ञात होता है कि अपने शासन काल के 13वें वर्ष में कलिंगराज खारवेल ने कुमारीपर्वत पर, जहां कि धर्मचक्र प्रवर्तन हुआ था, श्रद्धा सहित राजकीय पोषण प्रस्तुत किया तथा भिक्षओं को चीनी, वस्त्र तथा श्वेतवस्त्र ‘वासासितानि' प्रदान किये। यदि जायसवाल तथा बनर्जी के पाठ को सही माने तो कहा जायेगा कि चौदहवीं पंक्ति में भिक्षुओं को श्वेत वस्त्र बांटने का उल्लेख है। जायसवाल ने हाथीगुंफा अभिलेख का काल द्वितीय शताब्दी ई०पू० प्रस्तावित किया है और इस प्रकार उनके विचारानुसार द्वितीय शताब्दी ई०पू० में मगध में श्वेताम्बरों का अस्तित्व था। दिगम्बरों ने पाटलिपुत्र में संकलित आगमों को मानने से इनकार कर दिया और उन्होंने यह घोषणा कर दी कि अंग और पूर्व नष्ट हो गये हैं। सूदीर्घ कालवश श्वेताम्बरों के आगम अस्त-व्यस्त हो गये और उनके एकदम नष्ट हो जाने का भय उत्पन्न हो गया। अत: महावीर निर्वाण के 980